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ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता | ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता | ||
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घाटी की घास फैलती रहेगी रात को | घाटी की घास फैलती रहेगी रात को |
19:02, 28 मार्च 2011 के समय का अवतरण
इन ढलानों पर वसन्त
आएगा हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुंधवाता ख़ाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफ़िर की तरह
गुज़रता रहेगा अंधकार
चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर उभरेगा झाँकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जाएगी जैसे बीते साल की बर्फ़
शिखरों से टूटते आएंगे फूल
अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज़
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान
(रचनाकाल : 1970)