"कबीर दोहावली / पृष्ठ ७" के अवतरणों में अंतर
 (New page: निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह । <BR/> विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत य...)  | 
				|||
| (4 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 5 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
| पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
| − | निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।   | + | {{KKGlobal}}  | 
| − | विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥   | + | {{KKRachna  | 
| + | |रचनाकार=कबीर  | ||
| + | }}  | ||
| + | {{KKPageNavigation  | ||
| + | |पीछे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ६   | ||
| + | |आगे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ८   | ||
| + | |सारणी=दोहावली / कबीर  | ||
| + | }}  | ||
| + | {{KKCatDoha}}  | ||
| + | <poem>  | ||
| + | निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।    | ||
| + | विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥    | ||
| − | मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।   | + | मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।    | 
| − | जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥   | + | जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥    | 
| − | और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।   | + | और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।    | 
| − | स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥   | + | स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥    | 
| − | जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।   | + | जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।    | 
| − | डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥   | + | डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥    | 
| − | इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।   | + | इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।    | 
| − | सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥   | + | सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥    | 
| − | शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।   | + | शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।    | 
| − | लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥   | + | लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥    | 
| − | कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।   | + | कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।    | 
| − | साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥   | + | साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥    | 
| − | सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।   | + | सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।    | 
| − | मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥   | + | मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥    | 
| − | कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।   | + | कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।    | 
| − | बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥   | + | बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥    | 
| − | बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।   | + | बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।    | 
| − | साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥   | + | साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥    | 
| − | बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।   | + | बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।    | 
| − | साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥   | + | साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥    | 
| − | एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।   | + | एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।    | 
| − | अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥   | + | अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥    | 
| − | जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।   | + | जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।    | 
| − | भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥   | + | भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥    | 
| − | उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।   | + | उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।    | 
| − | यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥   | + | यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥    | 
| − | तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।   | + | तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।    | 
| − | कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥   | + | कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥    | 
| − | तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।   | + | तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।    | 
| − | साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥   | + | साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥    | 
| − | ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।   | + | ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।    | 
| − | तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥   | + | तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥    | 
| − | आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।   | + | आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।    | 
| − | लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥   | + | लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥    | 
| − | जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।   | + | जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।    | 
| − | जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥   | + | जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥    | 
| − | कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।   | + | कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।    | 
| − | पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥   | + | पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥    | 
| − | सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।   | + | सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।    | 
| − | मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥   | + | मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥    | 
| − | सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।   | + | सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।    | 
| − | सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥   | + | सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥    | 
| − | संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय ।   | + | संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय ।    | 
| − | लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥   | + | लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥    | 
| − | मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त ।   | + | मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त ।    | 
| − | भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥   | + | भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥    | 
| − | दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।   | + | दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।    | 
| − | येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥   | + | येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥    | 
| − | सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।   | + | सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।    | 
| − | ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥   | + | ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥    | 
| − | आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान ।   | + | आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान ।    | 
| − | हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥   | + | हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥    | 
| − | आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर ।   | + | आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर ।    | 
| − | शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥   | + | शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥    | 
| − | यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।   | + | यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।    | 
| − | कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥   | + | कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥    | 
| − | कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस ।   | + | कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस ।    | 
| − | सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥   | + | सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥    | 
| − | साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।   | + | साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।    | 
| − | इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥   | + | इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥    | 
| − | साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।   | + | साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।    | 
| − | डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥   | + | डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥    | 
| − | सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।   | + | सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।    | 
| − | जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥   | + | जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥    | 
| − | आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।   | + | आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।    | 
| − | जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥   | + | जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥    | 
| − | साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।   | + | साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।    | 
| − | बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥   | + | बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥    | 
| − | सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।   | + | सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।    | 
| − | कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥   | + | कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥    | 
| − | हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय ।   | + | हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय ।    | 
| − | कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥   | + | कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥    | 
| − | साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।   | + | साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।    | 
| − | विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥   | + | विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥    | 
| − | सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।   | + | सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।    | 
| − | ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥   | + | ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥    | 
॥ भेष के विषय मे दोहे ॥    | ॥ भेष के विषय मे दोहे ॥    | ||
| − | चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।   | + | चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।    | 
| − | ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥   | + | ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥    | 
| − | बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।   | + | बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।    | 
| − | बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥   | + | बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥    | 
| − | साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।   | + | साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।    | 
| − | बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥   | + | बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥    | 
| − | तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।   | + | तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।    | 
| − | सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥   | + | सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥    | 
| − | जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।   | + | जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।    | 
| − | गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥   | + | गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥    | 
| − | शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव ।   | + | शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव ।    | 
| − | क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥   | + | क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥    | 
| − | गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।   | + | गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।    | 
| − | कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥   | + | कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥    | 
| − | पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय ।   | + | पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय ।    | 
| − | तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥   | + | तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥    | 
| − | गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।   | + | गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।    | 
| − | कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥   | + | कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥    | 
| − | मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।   | + | मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।    | 
| − | तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥   | + | तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥    | 
| − | भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।   | + | भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।    | 
| − | बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥   | + | बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥    | 
| − | कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट ।   | + | कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट ।    | 
| − | मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥   | + | मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥    | 
| − | बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम ।   | + | बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम ।    | 
| − | मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥   | + | मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥    | 
| − | फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल ।   | + | फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल ।    | 
| − | साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥   | + | साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥    | 
| − | बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।   | + | बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।    | 
| − | दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥   | + | दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥    | 
| − | धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग ।   | + | धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग ।    | 
| − | गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥   | + | गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥    | 
| − | घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग ।   | + | घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग ।    | 
| − | बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥   | + | बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥    | 
| − | ॥ भीख के विषय मे दोहे ॥   | + | ॥ भीख के विषय मे दोहे ॥    | 
| − | उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष ।   | + | उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष ।    | 
| − | कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥   | + | कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥    | 
| − | अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।   | + | अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।    | 
| − | जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥   | + | जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥    | 
| − | माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं ।   | + | माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं ।    | 
| − | तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥   | + | तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥    | 
| − | माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख ।   | + | माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख ।    | 
| − | कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥   | + | कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥    | 
| − | उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर ।   | + | उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर ।    | 
| − | अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥   | + | अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥    | 
| − | आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।   | + | आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।    | 
| − | यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥   | + | यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥    | 
| − | सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि ।   | + | सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि ।    | 
| − | कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥   | + | कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥    | 
| − | अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय ।   | + | अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय ।    | 
| − | कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥   | + | कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥    | 
| − | अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।   | + | अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।    | 
| − | उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥   | + | उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥    | 
| − | ॥ संगति पर दोहे ॥   | + | ॥ संगति पर दोहे ॥    | 
| − | कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय ।   | + | कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय ।    | 
| − | दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥   | + | दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥    | 
| − | एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।   | + | एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।    | 
| − | कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥   | + | कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥    | 
| − | कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय ।   | + | कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय ।    | 
| − | सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥   | + | सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥    | 
| − | मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग ।   | + | मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग ।    | 
| − | कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥   | + | कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥    | 
| − | साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह ।   | + | साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह ।    | 
| − | कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥   | + | कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥    | 
| − | साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग ।   | + | साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग ।    | 
| − | संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥   | + | संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥    | 
| − | साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय ।   | + | साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय ।    | 
| − | कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥   | + | कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥    | 
| − | गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार ।   | + | गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार ।    | 
| − | मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥   | + | मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥    | 
| − | संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय ।   | + | संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय ।    | 
| − | कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥   | + | कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥    | 
| − | भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय ।   | + | भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय ।    | 
| − | सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥   | + | सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥    | 
| − | तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल ।   | + | तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल ।    | 
| − | काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥   | + | काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥    | 
| − | काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान ।   | + | काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान ।    | 
| − | काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥   | + | काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥    | 
| − | कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव ।   | + | कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव ।    | 
| − | मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥   | + | मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥    | 
| − | मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय ।   | + | मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय ।    | 
| − | कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥   | + | कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥    | 
| − | ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट ।   | + | ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट ।    | 
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥  | ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥  | ||
| − | साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह ।   | + | साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह ।    | 
| − | पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥   | + | पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥    | 
| − | ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय ।   | + | ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय ।    | 
| − | संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥   | + | संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥    | 
| − | जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय ।   | + | जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय ।    | 
| − | जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥   | + | जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥    | 
| − | दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय ।   | + | दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय ।    | 
| − | कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥   | + | कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥    | 
| − | जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय ।   | + | जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय ।    | 
| − | ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥   | + | ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥    | 
| − | प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय ।   | + | प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय ।    | 
| − | जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥   | + | जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥    | 
| − | कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय ।   | + | कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय ।    | 
| − | विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥   | + | विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥    | 
| − | सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात ।   | + | सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात ।    | 
| − | गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥   | + | गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥    | 
| − | तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज ।   | + | तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज ।    | 
| − | तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥   | + | तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥    | 
| − | मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ ।   | + | मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ ।    | 
| − | ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥   | + | ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥    | 
| − | लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति ।   | + | लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति ।    | 
| − | अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥   | + | अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥    | 
| − | साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग ।   | + | साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग ।    | 
| − | कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥   | + | कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥    | 
| − | संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।   | + | संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।    | 
| − | लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥   | + | लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥    | 
| − | तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।   | + | तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।    | 
| − | संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥   | + | संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥    | 
| − | साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।   | + | साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।    | 
| − | ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥   | + | ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥    | 
| − | संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत ।   | + | संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत ।    | 
| − | साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥   | + | साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥    | 
| − | चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय ।   | + | चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय ।    | 
| − | ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥   | + | ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥    | 
| − | सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।   | + | सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।    | 
| − | मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥   | + | मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥    | 
| पंक्ति 305: | पंक्ति 316: | ||
| − | सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय ।   | + | सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय ।    | 
| − | जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥   | + | जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥    | 
| − | तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय ।   | + | तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय ।    | 
| − | जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥   | + | जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥    | 
| + | |||
| + | दया हृदय में राखिये तूं क्यों निरदय होय।  | ||
| + | सांई के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय ॥701॥  | ||
| + | |||
| + | भाव भाव में सिद्धि है भाव भाव में भेद ।  | ||
| + | जो मानो तो देव है नहीं तो भींत क लेव ॥702॥  | ||
| + | [[कबीर दोहावली / पृष्ठ ७|अगला भाग >>]]  | ||
15:02, 11 नवम्बर 2021 के समय का अवतरण
निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह । 
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥ 
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान । 
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥ 
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय । 
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥ 
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं । 
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥ 
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय । 
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥ 
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय । 
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥ 
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव । 
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥ 
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत । 
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥ 
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं । 
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥ 
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय । 
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥ 
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय । 
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥ 
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ । 
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥ 
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय । 
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥ 
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग । 
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥ 
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल । 
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥ 
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल । 
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥ 
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर । 
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥ 
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं । 
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥ 
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि । 
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥ 
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं । 
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥ 
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और । 
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥ 
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय । 
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥ 
संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय । 
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥ 
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त । 
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥ 
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव । 
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥ 
सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त । 
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥ 
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान । 
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥ 
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर । 
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥ 
यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय । 
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥ 
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस । 
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥ 
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह । 
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥ 
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय । 
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥ 
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ । 
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥ 
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच । 
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥ 
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब । 
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥ 
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय । 
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥ 
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय । 
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥ 
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग । 
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥ 
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग । 
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥ 
॥ भेष के विषय मे दोहे ॥ 
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस । 
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥ 
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल । 
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥ 
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार । 
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥ 
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय । 
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥ 
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार । 
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ 
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । 
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥ 
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द । 
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥ 
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय । 
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ 
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख । 
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥ 
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग । 
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥ 
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान । 
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥ 
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट । 
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ 
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम । 
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ 
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल । 
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥ 
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । 
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥ 
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग । 
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ 
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग । 
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥ 
॥ भीख के विषय मे दोहे ॥ 
उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष । 
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥ 
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख । 
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥ 
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं । 
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥ 
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । 
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥ 
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । 
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ 
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह । 
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥ 
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि । 
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥ 
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । 
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ 
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष । 
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥ 
॥ संगति पर दोहे ॥ 
कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय । 
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥ 
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । 
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥ 
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय । 
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥ 
मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग । 
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ 
साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह । 
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥ 
साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग । 
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥ 
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय । 
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ 
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार । 
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ 
संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय । 
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ 
भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । 
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥ 
तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । 
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥ 
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान । 
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥ 
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव । 
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ 
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । 
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ 
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट । 
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह । 
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥ 
ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय । 
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥ 
जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय । 
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ 
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । 
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥ 
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय । 
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥ 
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय । 
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥ 
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय । 
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥ 
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात । 
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ 
तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज । 
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥ 
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ । 
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥ 
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति । 
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥ 
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग । 
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥ 
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग । 
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ 
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । 
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ 
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । 
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥ 
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत । 
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥ 
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय । 
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ 
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग । 
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥ 
॥ सेवक पर दोहे ॥ 
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । 
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ 
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय । 
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥ 
दया हृदय में राखिये तूं क्यों निरदय होय।
सांई के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय ॥701॥
भाव भाव में सिद्धि है भाव भाव में भेद ।
जो मानो तो देव है नहीं तो भींत क लेव ॥702॥
अगला भाग >>
	
	