"कबीर दोहावली / पृष्ठ ७" के अवतरणों में अंतर
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+ | निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह । | ||
+ | विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥ | ||
− | + | मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान । | |
− | + | जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥ | |
− | + | और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय । | |
− | + | स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥ | |
− | + | जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं । | |
− | + | डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥ | |
− | + | इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय । | |
− | + | सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥ | |
− | + | शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय । | |
− | + | लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥ | |
− | + | कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव । | |
− | + | साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥ | |
− | + | सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत । | |
− | + | मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥ | |
− | + | कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं । | |
− | + | बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥ | |
− | + | बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय । | |
− | + | साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥ | |
− | + | बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय । | |
− | + | साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥ | |
− | + | एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ । | |
− | + | अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥ | |
− | + | जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय । | |
− | + | भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥ | |
− | + | उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग । | |
− | + | यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥ | |
− | + | तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल । | |
− | + | कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥ | |
− | + | तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल । | |
− | + | साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥ | |
− | + | ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर । | |
− | साधु सती | + | तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥ |
− | + | आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं । | |
− | + | लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥ | |
− | + | जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि । | |
− | + | जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥ | |
− | + | कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं । | |
− | + | पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥ | |
− | + | सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और । | |
− | + | मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥ | |
− | सन्त | + | सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय । |
− | + | सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥ | |
− | + | संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय । | |
− | + | लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥ | |
− | + | मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त । | |
− | + | भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥ | |
− | + | दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव । | |
− | + | येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥ | |
− | + | सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त । | |
− | + | ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥ | |
− | + | आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान । | |
− | + | हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥ | |
− | + | आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर । | |
− | + | शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥ | |
− | + | यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय । | |
− | + | कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥ | |
− | + | कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस । | |
− | + | सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥ | |
− | + | साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह । | |
− | + | इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥ | |
− | साधु | + | साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय । |
− | + | डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥ | |
− | + | सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ । | |
− | + | जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥ | |
− | + | आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच । | |
− | + | जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥ | |
− | + | साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब । | |
− | + | बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥ | |
− | + | सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय । | |
− | + | कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥ | |
− | + | हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय । | |
− | + | कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥ | |
− | + | साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग । | |
− | + | विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥ | |
− | + | सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग । | |
− | + | ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥ | |
− | + | ||
− | सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग । | + | |
− | ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥ | + | |
॥ भेष के विषय मे दोहे ॥ | ॥ भेष के विषय मे दोहे ॥ | ||
− | चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस । | + | चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस । |
− | ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥ | + | ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥ |
− | बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल । | + | बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल । |
− | बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥ | + | बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥ |
− | साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार । | + | साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार । |
− | बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥ | + | बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥ |
− | तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय । | + | तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय । |
− | सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥ | + | सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥ |
− | जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार । | + | जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार । |
− | गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ | + | गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ |
− | शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । | + | शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । |
− | क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥ | + | क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥ |
− | गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द । | + | गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द । |
− | कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥ | + | कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥ |
− | पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय । | + | पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय । |
− | तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ | + | तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ |
− | गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख । | + | गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख । |
− | कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥ | + | कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥ |
− | मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग । | + | मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग । |
− | तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥ | + | तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥ |
− | भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान । | + | भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान । |
− | बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥ | + | बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥ |
− | कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट । | + | कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट । |
− | मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ | + | मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ |
− | बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम । | + | बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम । |
− | मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ | + | मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ |
− | फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल । | + | फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल । |
− | साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥ | + | साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥ |
− | बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । | + | बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । |
− | दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥ | + | दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥ |
− | धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग । | + | धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग । |
− | गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ | + | गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ |
− | घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग । | + | घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग । |
− | बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥ | + | बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥ |
− | ॥ भीख के विषय मे दोहे ॥ | + | ॥ भीख के विषय मे दोहे ॥ |
− | उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष । | + | उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष । |
− | कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥ | + | कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥ |
− | अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख । | + | अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख । |
− | जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥ | + | जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥ |
− | माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं । | + | माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं । |
− | तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥ | + | तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥ |
− | माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । | + | माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । |
− | कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥ | + | कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥ |
− | उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । | + | उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । |
− | अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ | + | अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ |
− | आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह । | + | आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह । |
− | यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥ | + | यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥ |
− | सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि । | + | सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि । |
− | कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥ | + | कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥ |
− | अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । | + | अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । |
− | कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ | + | कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ |
− | अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष । | + | अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष । |
− | उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥ | + | उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥ |
− | ॥ संगति पर दोहे ॥ | + | ॥ संगति पर दोहे ॥ |
− | कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय । | + | कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय । |
− | दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥ | + | दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥ |
− | एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । | + | एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । |
− | कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥ | + | कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥ |
− | कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय । | + | कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय । |
− | सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥ | + | सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥ |
− | मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग । | + | मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग । |
− | कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ | + | कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ |
− | साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह । | + | साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह । |
− | कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥ | + | कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥ |
− | साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग । | + | साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग । |
− | संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥ | + | संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥ |
− | साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय । | + | साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय । |
− | कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ | + | कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ |
− | गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार । | + | गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार । |
− | मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ | + | मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ |
− | संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय । | + | संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय । |
− | कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ | + | कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ |
− | भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । | + | भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । |
− | सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥ | + | सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥ |
− | तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । | + | तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । |
− | काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥ | + | काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥ |
− | काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान । | + | काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान । |
− | काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥ | + | काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥ |
− | कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव । | + | कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव । |
− | मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ | + | मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ |
− | मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । | + | मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । |
− | कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ | + | कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ |
− | ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट । | + | ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट । |
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥ | ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥ | ||
− | साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह । | + | साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह । |
− | पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥ | + | पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥ |
− | ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय । | + | ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय । |
− | संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥ | + | संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥ |
− | जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय । | + | जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय । |
− | जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ | + | जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ |
− | दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । | + | दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । |
− | कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥ | + | कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥ |
− | जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय । | + | जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय । |
− | ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥ | + | ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥ |
− | प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय । | + | प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय । |
− | जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥ | + | जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥ |
− | कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय । | + | कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय । |
− | विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥ | + | विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥ |
− | सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात । | + | सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात । |
− | गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ | + | गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ |
− | तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज । | + | तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज । |
− | तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥ | + | तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥ |
− | मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ । | + | मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ । |
− | ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥ | + | ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥ |
− | लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति । | + | लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति । |
− | अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥ | + | अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥ |
− | साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग । | + | साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग । |
− | कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥ | + | कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥ |
− | संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग । | + | संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग । |
− | लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ | + | लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ |
− | तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । | + | तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । |
− | संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ | + | संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ |
− | साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । | + | साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । |
− | ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥ | + | ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥ |
− | संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत । | + | संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत । |
− | साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥ | + | साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥ |
− | चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय । | + | चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय । |
− | ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ | + | ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ |
− | सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग । | + | सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग । |
− | मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥ | + | मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥ |
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− | सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । | + | सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । |
− | जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ | + | जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ |
− | तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय । | + | तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय । |
− | जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥ | + | जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥ |
+ | दया हृदय में राखिये तूं क्यों निरदय होय। | ||
+ | सांई के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय ॥701॥ | ||
− | + | भाव भाव में सिद्धि है भाव भाव में भेद । | |
− | + | जो मानो तो देव है नहीं तो भींत क लेव ॥702॥ | |
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15:02, 11 नवम्बर 2021 के समय का अवतरण
निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥
संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय ।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त ।
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥
सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान ।
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर ।
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥
यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस ।
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय ।
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥
॥ भेष के विषय मे दोहे ॥
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव ।
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय ।
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट ।
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम ।
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल ।
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग ।
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग ।
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥
॥ भीख के विषय मे दोहे ॥
उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष ।
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं ।
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख ।
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर ।
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय ।
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥
॥ संगति पर दोहे ॥
कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय ।
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय ।
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥
मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥
साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह ।
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥
साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग ।
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय ।
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार ।
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥
संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय ।
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥
भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय ।
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥
तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल ।
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान ।
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव ।
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय ।
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट ।
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह ।
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥
ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय ।
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥
जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय ।
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय ।
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय ।
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय ।
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय ।
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात ।
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥
तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज ।
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ ।
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति ।
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग ।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत ।
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय ।
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥
॥ सेवक पर दोहे ॥
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय ।
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय ।
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥
दया हृदय में राखिये तूं क्यों निरदय होय।
सांई के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय ॥701॥
भाव भाव में सिद्धि है भाव भाव में भेद ।
जो मानो तो देव है नहीं तो भींत क लेव ॥702॥
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