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08:42, 28 फ़रवरी 2012 के समय का अवतरण
शीर्षक बदलने होंगे कविताओं के
क्योंकि कविता
अब मेरे लिए
लगाम है
कभी ख़ुद पर
कभी दूसरों पर ।
शौक़ में
भांडों के तमाशे
और भूख में
औरत की मज़बूरी का
चित्र
अब मेरी कविता
नहीं खींचेगी
क्योंकि कविता
अब मेरे लिए
फ़ौलादी मुक्का है
कभी शौक पर
कभी भूख पर ।
शिकायतों का पोथा
अब मेरी कविता नहीं है
मेरी कविता
बदनाम औरत की तरह
सरेआम
बकने के क़ाबिल है ।
वह चुप साधे
सकुचाई कामिनी नहीं
जिसकी
अपने साथ हुई हरकत
बताते भी
मर्यादा (?) भंग होती है ।
क्योंकि अब
कविता
निर्णय है,
निर्णय की भूमिका नहीं ।