"अपनी बात / पद्मजा शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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− | मैं अपनी बात क्या कहूँ ? मेरी बात तो ये कविताएँ कह रही हैं। अगर कह पाती मैं तो लिखना कहाँ ज़रूरी था ? | + | मैं अपनी बात क्या कहूँ ? मेरी बात तो ये कविताएँ कह रही हैं। अगर कह पाती मैं तो लिखना कहाँ ज़रूरी था ? जो नहीं कह पाई और कहना ज़रूरी था और है। जो कर नहीं पाई पर करना चाहती थी और चाहती हूँ शिद्दत से, अब भी। मैं जानती हूँ कि वह कभी हार नहीं कर और कह पाऊँगी जो सचमुच चाहती हूँ। उसी को यहाँ रचने की कोशिश की है। यहाँ ईश्वर है .......किंतु है क्या ? साब हैं तो आम आदमी भी है। मेरे ‘मैं’ में हर औरत और औरत का सहज प्यार है। सामने वाले का ‘मैं’ है तो उसका प्रतिकार-अस्वीकार भी है। पर वह भी तो एक तरह का प्यार ही है। अगर नहीं होता तो यह सारा तामझाम भी नहीं होता। |
− | जो नहीं कह पाई और कहना ज़रूरी था और है। जो कर नहीं पाई पर करना चाहती थी और चाहती हूँ शिद्दत से, अब भी। मैं जानती हूँ कि वह कभी हार नहीं कर और कह पाऊँगी जो सचमुच चाहती हूँ। उसी को यहाँ रचने की कोशिश की है। यहाँ ईश्वर है .......किंतु है क्या ? साब हैं तो आम आदमी भी है। मेरे ‘मैं’ में हर औरत और औरत का सहज प्यार है। सामने वाले का ‘मैं’ है तो उसका प्रतिकार-अस्वीकार भी है। पर वह | + | |
आप बताएँ कि ये कविताएँ आपसे क्या कह रही हैं और कैसा कह रही है ? बस यही कि इन्हें लिखना खौलते तेल के कड़ाह में से निकलने जैसा था। जेठ की दोपहर में तपते रेगिस्तान में अकेले और लम्बा चलने जैसा था। अगर यह नियति है तो भी क्या ? थक कर बैठना नहीं बल्कि चलते और बढ़ते जाना है .... उससे आँखें मिलाते हुए ...। | आप बताएँ कि ये कविताएँ आपसे क्या कह रही हैं और कैसा कह रही है ? बस यही कि इन्हें लिखना खौलते तेल के कड़ाह में से निकलने जैसा था। जेठ की दोपहर में तपते रेगिस्तान में अकेले और लम्बा चलने जैसा था। अगर यह नियति है तो भी क्या ? थक कर बैठना नहीं बल्कि चलते और बढ़ते जाना है .... उससे आँखें मिलाते हुए ...। | ||
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14:37, 24 नवम्बर 2011 के समय का अवतरण
मैं अपनी बात क्या कहूँ ? मेरी बात तो ये कविताएँ कह रही हैं। अगर कह पाती मैं तो लिखना कहाँ ज़रूरी था ? जो नहीं कह पाई और कहना ज़रूरी था और है। जो कर नहीं पाई पर करना चाहती थी और चाहती हूँ शिद्दत से, अब भी। मैं जानती हूँ कि वह कभी हार नहीं कर और कह पाऊँगी जो सचमुच चाहती हूँ। उसी को यहाँ रचने की कोशिश की है। यहाँ ईश्वर है .......किंतु है क्या ? साब हैं तो आम आदमी भी है। मेरे ‘मैं’ में हर औरत और औरत का सहज प्यार है। सामने वाले का ‘मैं’ है तो उसका प्रतिकार-अस्वीकार भी है। पर वह भी तो एक तरह का प्यार ही है। अगर नहीं होता तो यह सारा तामझाम भी नहीं होता।
आप बताएँ कि ये कविताएँ आपसे क्या कह रही हैं और कैसा कह रही है ? बस यही कि इन्हें लिखना खौलते तेल के कड़ाह में से निकलने जैसा था। जेठ की दोपहर में तपते रेगिस्तान में अकेले और लम्बा चलने जैसा था। अगर यह नियति है तो भी क्या ? थक कर बैठना नहीं बल्कि चलते और बढ़ते जाना है .... उससे आँखें मिलाते हुए ...।