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"आपु गए हरुएँ सूनैं घर / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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सूर स्याम-मुख निरखि थकित भइ,कहत न बनै, रही मन दै हरि ॥<br><br>
 
सूर स्याम-मुख निरखि थकित भइ,कहत न बनै, रही मन दै हरि ॥<br><br>
  
भावार्थ :-- श्याममसुन्दर स्वयं धीरेसे सूने घरमें गुस गये, सभी सखाओंको बाहर ही छोड़ दिया; वहाँ भीतर उन्होंने दही और मक्खन देखा । तुरंत मथे हुए दहीसे निकलामक्खन वे पा गये । उसे उठा-उठाकर होंठोपर रखने और आरोगने लगे । (फिर) संकेतकरके सब सखाओंको बुला लिया,उन्हें भी अपने हाथोंमें भर भरकर देने लगे । वक्षःस्थल पर दही की बूँदें छिटक रही हैं । मनमें भय करके इधर-उधर देखते भी जाते हैं । सखाओंकी आड़ लेकर उठते हैं और सबको देख लेते हैं (कि कोई कहींसे देखती तो नहीं ) फिरमक्खन लेकर खाते हैं, इन श्रेष्ठ (बड़भागी) गोपबालकों के हाथ से भी लेते हैं । छिपीहुई गोपी यह सब देख रही है । उसके हृदय में अत्यन्त आनन्द भर रहा है, वह मग्न हो रही है । सूरदासजी कहते हैं--श्यामसुन्दरके मुखको देखकर वह थकित (निश्चेष्ट) हो रहीहै, उससे कुछ कहते (बोलते) नहीं बनता, श्यामसुन्दरको उसने अपना मन अर्पित कर दिया है ।
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भावार्थ :-- श्याममसुन्दर स्वयं धीरे से सूने घर में घुस गये, सभी सखाओं को बाहर ही छोड़ दिया; वहाँ भीतर उन्होंने दही और मक्खन देखा । तुरंत मथे हुए दही से निकला मक्खन वे पा गये । उसे उठा-उठा कर होंठो पर रखने और आरोगने लगे । (फिर) संकेत करके सब सखाओं को बुला लिया, उन्हें भी अपने हाथों में भर-भर कर देने  
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लगे । वक्ष-स्थल पर दही की बूँदें छिटक रही हैं । मन में भय करके इधर-उधर देखते भी जाते हैं । सखाओं की आड़ लेकर उठते हैं और सबको देख लेते हैं (कि कोई कहीं से देखती तो नहीं ) फिर मक्खन लेकर खाते हैं, इन श्रेष्ठ (बड़भागी) गोप बालकों के हाथ से भी लेते हैं । छिपी हुई गोपी यह सब देख रही है । उसके हृदय में अत्यन्त आनन्द भर रहा है, वह मग्न हो रही है । सूरदास जी कहते हैं--श्यामसुन्दर के मुख को देखकर वह थकित (निश्चेष्ट) हो रही है, उससे कुछ कहते (बोलते) नहीं बनता, श्यामसुन्दर को उसने अपना मन अर्पित कर दिया है ।

10:15, 28 सितम्बर 2007 के समय का अवतरण



राग गौरी


आपु गए हरुएँ सूनैं घर ।
सखा सबै बाहिर ही छाँड़े, देख्यौ दधि-माखन हरि भीतर ॥
तुरत मथ्यौ दधि-माखन पायौ, लै-लै खात, धरत अधरनि पर ।
सैन देइ सब सखा बुलाए, तिनहि देत भरि-भरि अपनैं कर ॥
छिटकि रही दधि-बूँद हृदय पर, इत उत चितवत करि मन मैं डर ।
उठत ओट लै लखत सबनि कौं, पुनि लै कात लेत ग्वालनि बर ॥
अंतर भई ग्वालि यह देखति मगन भई, अति उर आनँद भरि ।
सूर स्याम-मुख निरखि थकित भइ,कहत न बनै, रही मन दै हरि ॥

भावार्थ :-- श्याममसुन्दर स्वयं धीरे से सूने घर में घुस गये, सभी सखाओं को बाहर ही छोड़ दिया; वहाँ भीतर उन्होंने दही और मक्खन देखा । तुरंत मथे हुए दही से निकला मक्खन वे पा गये । उसे उठा-उठा कर होंठो पर रखने और आरोगने लगे । (फिर) संकेत करके सब सखाओं को बुला लिया, उन्हें भी अपने हाथों में भर-भर कर देने लगे । वक्ष-स्थल पर दही की बूँदें छिटक रही हैं । मन में भय करके इधर-उधर देखते भी जाते हैं । सखाओं की आड़ लेकर उठते हैं और सबको देख लेते हैं (कि कोई कहीं से देखती तो नहीं ) फिर मक्खन लेकर खाते हैं, इन श्रेष्ठ (बड़भागी) गोप बालकों के हाथ से भी लेते हैं । छिपी हुई गोपी यह सब देख रही है । उसके हृदय में अत्यन्त आनन्द भर रहा है, वह मग्न हो रही है । सूरदास जी कहते हैं--श्यामसुन्दर के मुख को देखकर वह थकित (निश्चेष्ट) हो रही है, उससे कुछ कहते (बोलते) नहीं बनता, श्यामसुन्दर को उसने अपना मन अर्पित कर दिया है ।