भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कान्ह सौं आवत क्यौऽब रिसात / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग नट कान्ह सौं आवत क्यौऽब रिसात ।<br> लै-लै ल...)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=सूरदास
 
|रचनाकार=सूरदास
}}  
+
}} {{KKCatKavita}}
 
+
{{KKAnthologyKrushn}}
 
राग नट  
 
राग नट  
  
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
 
मानौ सूर सकात सरासन, उड़िबे कौ अकुलात ॥ <br><br>
 
मानौ सूर सकात सरासन, उड़िबे कौ अकुलात ॥ <br><br>
  
भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं--कन्हैया पर इतना रोष करते (मैया!) तुमसे बनता कैसे है, जो अपने कठोर हाथ में बार-बार छड़ी लेकर इसके कोमल शरीर का स्पर्श कर रही हो (इसे मारती हो)! देखती हो इसकी आँखों से गिरते हुए आँसू ढुलकते हुए ऐसे शोभित होते हैं मानो खञ्जन पक्षी मोती चुग रहे हैं, परंतु वे उनके चञ्चु-पुट में समाते नहीं (बार-बार गिर पड़ते हैं ) मेरी बात सुनो । भौंहों की ओर देखो! भय से चञ्चलहुए ये इस प्रकार हिल रहे हैं मानो उड़ जाने को व्याकुल हो रहे हैं, किंतु (भ्रूरूपी) धनुष को देखकर शंकित हो रहे हैं ।
+
भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं--कन्हैया पर इतना रोष करते (मैया!) तुमसे बनता कैसे है, जो अपने कठोर हाथ में बार-बार छड़ी लेकर इसके कोमल शरीर का स्पर्श कर रही हो (इसे मारती हो)! देखती हो इसकी आँखों से गिरते हुए आँसू ढुलकते हुए ऐसे शोभित होते हैं मानो खञ्जन पक्षी मोती चुग रहे हैं, परंतु वे उनके चञ्चु-पुट में समाते नहीं (बार-बार गिर पड़ते हैं ) मेरी बात सुनो । भौंहों की ओर देखो! भय से चञ्चल हुए ये इस प्रकार हिल रहे हैं मानो उड़ जाने को व्याकुल हो रहे हैं, किंतु (भ्रूरूपी) धनुष को देखकर शंकित हो रहे हैं ।

20:17, 18 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

राग नट

कान्ह सौं आवत क्यौऽब रिसात ।
लै-लै लकुट कठिन कर अपनै परसत कोमल गात ॥
दैखत आँसू गिरत नैन तैं यौं सोभित ढरि जात ।
मुक्ता मनौ चुगत खग खंजन, चोंच-पुटी न समात ॥
डरनि लोल डोलत हैं इहि बिधि, निरखि भ्रुवनि सुनि बात ॥
मानौ सूर सकात सरासन, उड़िबे कौ अकुलात ॥

भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं--कन्हैया पर इतना रोष करते (मैया!) तुमसे बनता कैसे है, जो अपने कठोर हाथ में बार-बार छड़ी लेकर इसके कोमल शरीर का स्पर्श कर रही हो (इसे मारती हो)! देखती हो इसकी आँखों से गिरते हुए आँसू ढुलकते हुए ऐसे शोभित होते हैं मानो खञ्जन पक्षी मोती चुग रहे हैं, परंतु वे उनके चञ्चु-पुट में समाते नहीं (बार-बार गिर पड़ते हैं ) मेरी बात सुनो । भौंहों की ओर देखो! भय से चञ्चल हुए ये इस प्रकार हिल रहे हैं मानो उड़ जाने को व्याकुल हो रहे हैं, किंतु (भ्रूरूपी) धनुष को देखकर शंकित हो रहे हैं ।