भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दूरवासी मीत मेरे / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=इत्यलम् / अज्ञेय }} {{...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
दूरवासी मीत मेरे!
 
दूरवासी मीत मेरे!
 
पहुँच क्या तुझ तक सकेंगे काँपते ये गीत मेरे?
 
पहुँच क्या तुझ तक सकेंगे काँपते ये गीत मेरे?
आज कारावास में उर तड़प उ_ा है पिघल कर
+
आज कारावास में उर तड़प उठा है पिघल कर
 
बद्ध सब अरमान मेरे फूट निकले हैं उबल कर
 
बद्ध सब अरमान मेरे फूट निकले हैं उबल कर
 
याद तेरी को कुचलने के लिए जो थी बनायी-
 
याद तेरी को कुचलने के लिए जो थी बनायी-

22:23, 19 जुलाई 2012 के समय का अवतरण

दूरवासी मीत मेरे!
पहुँच क्या तुझ तक सकेंगे काँपते ये गीत मेरे?
आज कारावास में उर तड़प उठा है पिघल कर
बद्ध सब अरमान मेरे फूट निकले हैं उबल कर
याद तेरी को कुचलने के लिए जो थी बनायी-

वह सुदृढ़ प्राचीर मेरी हो गयी है छार जल कर!
प्यार के प्रिय भार से हैं सजल नैन विनीत मेरे!
दूरवासी मीत मेरे!
आज मैं कितना विवश हूँ बद्ध हैं मेरी भुजाएँ-

प्राण पर आराधना की साध को कैसे भुलाएँ?
कोठरी में तन झुके, मन विनत हो तेरे पदों में-
गीत मेरे घेर तुझ को मूक हों, सुध भूल जाएँ!
हाय अब अभिमान के वे दिन गये हैं बीत मेरे!|
दूरवासी मीत मेरे!

लाहौर, अक्टूबर, 1938