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"हम एक हैं / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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जीवन का मालिन्य आज मैं क्यों धो डालूँ?
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हम एक हैं। हमारा प्रथम मिलन बहुत पहले हो चुका- इतना पहले कि हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। हम जन्म-जन्मान्तर के प्रणयी हैं।
उर में संचित कलुषनिधि को क्यों खो डालूँ?
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फिर इतना वैषम्य क्यों? क्या इतने कल्पों में भी हम एक-दूसरे को नहीं समझ पाये?
कहाँ, कौन है जिस को है मेरी भी कुछ परवाह-
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प्रेम में तो अनन्त सहानुभूति और प्रज्ञा होती है, वह तो क्षण-भर में परस्पर भावों को समझ लेता है, फिर इतने दीर्घ मिलन के बाद भी यह अलगाव का भाव क्यों?
जिस के उर में मेरी कृतियाँ जगा सकें उत्साह?
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विश्व-नगर की गलियों में खोये कुत्ते-सा
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झंझा की प्रमत्त गति में उलझे पत्ते-सा
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हटो, आज इस घृणा-पात्र को जाने भी दो टूट-
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भव-बन्धन से साभिमान ही पा लेने दो छूट!
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'''दिल्ली जेल, 23 अक्टूबर, 1932'''
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'''दिल्ली जेल, 17 जुलाई, 1932'''
 
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20:09, 30 जुलाई 2012 के समय का अवतरण

हम एक हैं। हमारा प्रथम मिलन बहुत पहले हो चुका- इतना पहले कि हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। हम जन्म-जन्मान्तर के प्रणयी हैं।
फिर इतना वैषम्य क्यों? क्या इतने कल्पों में भी हम एक-दूसरे को नहीं समझ पाये?
प्रेम में तो अनन्त सहानुभूति और प्रज्ञा होती है, वह तो क्षण-भर में परस्पर भावों को समझ लेता है, फिर इतने दीर्घ मिलन के बाद भी यह अलगाव का भाव क्यों?

दिल्ली जेल, 17 जुलाई, 1932