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प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की! | प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की! |
16:37, 3 अगस्त 2012 के समय का अवतरण
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
आँखें व्यथा कहे देती हैं खुली जा रही स्पन्दित छाती,
अखिल जगत् ले आज देख जी भर मुझ गरीबनी की थाती,
सुन ले, आज बावली आती
गाती अपनी अवश प्रभाती :
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
बीती रात, प्रात-शिशु को उर से चिपटाये आयी ऊषा-
लुटा रही हूँ गली-गली मैं अपने प्राणों की मंजूषा-
मुझ पगली की बिखरी भूषा-
आज गूदड़ी में मेरी उन की मणियों की माला चमकी-
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
मेरा परिचय? रजनी मेरी माँ थी, तारे सहचर,
मेरा घर? जग को ढँप लेने वाला नंगा अम्बर-
मेरा काम? सुनाना दर-दर
महिमा उस निर्मम की!
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
मैं पागल हूँ? हाँ, मैं पागल, ओ समाज धीमान्, सयाने!
तेरी पागलपन की जूठन मैं ने बीनी दाने-दाने-
यही दिया मुझ को विधना ने,
मैं भिखमंगी इस आलम की!
तू सँभाल ले अपना वैभव अपने बन्द खज़ाने कर ले,
ओ अश्रद्धा के कुबेर! निज उर से बोझ घृणा के भर ले-
तेरे पास बहुत है तो तू उसे छिपा कर धर ले-
मुझ को क्या देता है धमकी
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
मैं दीना हूँ, मेरा धन है प्यार यही तेरा ठुकराया,
किन्तु बटाने को उतना ही मेरा मन व्याकुल हो आया-
एक अकेली ज्योति-किरण से पुलक उठी है मेरी काया,
मैं क्यों मानूँ सत्ता तम की?
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
तू इन आँखों के आगे बस स्थिर रह अरे अनोखे मेरे,
खड्गधार की राह बना कर पास आ रही हूँ मैं तेरे,
मुझ को कैसे घाट-बसेरे?
मेरी खेल बड़े जोखम की!
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
वन में रात पपीहे बोले, घन में रात दामिनी दमकी-
नभ में प्रात छा गयी स्मित उस अभिसारी मेरे निरुपम की-
प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की!
कलकत्ता, 1939