"उद्धव-गोपी संवाद भाग ४ / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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− | गोपी सुनहु हरि संदेस । | + | गोपी सुनहु हरि संदेस । <br> |
− | कह्यौ पूरन ब्रह्म ध्यावहु, त्रिगुन मिथ्या भेष ॥ | + | कह्यौ पूरन ब्रह्म ध्यावहु, त्रिगुन मिथ्या भेष ॥<br> |
− | मैं कहौं सो सत्य मानहु, सगुन डारहु नाखि । | + | मैं कहौं सो सत्य मानहु, सगुन डारहु नाखि ।<br> |
− | पंच त्रय-गुन सकल देही, जगत ऐसौ भाषि ॥ | + | पंच त्रय-गुन सकल देही, जगत ऐसौ भाषि ॥<br> |
− | ज्ञान बिनु नर-मुक्ति नाहीं, यह विषय संसार । | + | ज्ञान बिनु नर-मुक्ति नाहीं, यह विषय संसार ।<br> |
− | रूप-रेख, न नाम जल थल, बरन अबरन सार ॥ | + | रूप-रेख, न नाम जल थल, बरन अबरन सार ॥<br> |
− | मातु पितु कोउ नाहिं नारी, जगत मिथ्या लाइ । | + | मातु पितु कोउ नाहिं नारी, जगत मिथ्या लाइ ।<br> |
− | सूर सुख-दुख नहीं जाकैं, भजौ ताकौं जाइ ॥1॥ | + | सूर सुख-दुख नहीं जाकैं, भजौ ताकौं जाइ ॥1॥ <br><br> |
− | ऐसी बात कहौ जनि ऊधौ । | + | ऐसी बात कहौ जनि ऊधौ ।<br> |
− | कमलनैन की कानि करति हैं, आवत बचन न सूधौ ॥ | + | कमलनैन की कानि करति हैं, आवत बचन न सूधौ ॥<br> |
− | बातनि ही उड़ि जाहिं और ज्यौं, त्यौं नाहीं हम काँची । | + | बातनि ही उड़ि जाहिं और ज्यौं, त्यौं नाहीं हम काँची ।<br> |
− | मन, बच, कर्म सोधि एकै मत, नंद-नंदन रँग राँची ॥ | + | मन, बच, कर्म सोधि एकै मत, नंद-नंदन रँग राँची ॥<br> |
− | सो कछु जतन करौ पालागौ, मिटै हियै की सूल । | + | सो कछु जतन करौ पालागौ, मिटै हियै की सूल ।<br> |
− | मुरलीधरहिं आनि दिखरावहु, ओढ़े पीत दुकूल ॥ | + | मुरलीधरहिं आनि दिखरावहु, ओढ़े पीत दुकूल ॥<br> |
− | इनहीं बातनि भए स्याम तनु , मिलवत हौ गढ़ि छोलि । | + | इनहीं बातनि भए स्याम तनु , मिलवत हौ गढ़ि छोलि ।<br> |
− | सूर बचन सुनि रह्यौ ठगौसौ, बहुरि न आयौ बोलि ॥2॥ | + | सूर बचन सुनि रह्यौ ठगौसौ, बहुरि न आयौ बोलि ॥2॥ <br><br> |
− | फिरि फिरि कहा बनावत बात । | + | फिरि फिरि कहा बनावत बात ।<br> |
− | प्रात काल उठि खेलत ऊधौ, घर घर माखन खात ॥ | + | प्रात काल उठि खेलत ऊधौ, घर घर माखन खात ॥<br> |
− | जिनकी बात कहत तुम हमसौं, सो है हमसौं दूरि । | + | जिनकी बात कहत तुम हमसौं, सो है हमसौं दूरि ।<br> |
− | ह्याँ हैं निकट जसोदा-नंदन, प्रान सजीवन मूरि ॥ | + | ह्याँ हैं निकट जसोदा-नंदन, प्रान सजीवन मूरि ॥<br> |
− | बालक संग लिऐँ दधि चोरत, खात खवावत डोलत । | + | बालक संग लिऐँ दधि चोरत, खात खवावत डोलत ।<br> |
− | सूर सीस नीचौ कत नावत, अब काहैं नहिं बोलत ॥3॥ | + | सूर सीस नीचौ कत नावत, अब काहैं नहिं बोलत ॥3॥ <br><br> |
− | फिरि-फिरि कहा सिखावत मौन ॥ | + | फिरि-फिरि कहा सिखावत मौन ॥<br> |
− | बचन दुसह लागत अलि तेरे, ज्यौं पजरे पर लौन ॥ | + | बचन दुसह लागत अलि तेरे, ज्यौं पजरे पर लौन ॥<br> |
− | सृंगी, मुद्रा, भस्म, त्वचा-मृग, अरु अवराधन पौन । | + | सृंगी, मुद्रा, भस्म, त्वचा-मृग, अरु अवराधन पौन ।<br> |
− | हम अबला अहीरि सठ मधुकर,धरि जानहिं कहि कौन ॥ | + | हम अबला अहीरि सठ मधुकर,धरि जानहिं कहि कौन ॥<br> |
− | यह मत जाइ तिनहिं तुम सिखवहु, जिनहिं आजु सब सोहत । | + | यह मत जाइ तिनहिं तुम सिखवहु, जिनहिं आजु सब सोहत ।<br> |
− | सूरदास कहुँ सुनी न देखी, पोत सूतरी पोहत ॥4॥ | + | सूरदास कहुँ सुनी न देखी, पोत सूतरी पोहत ॥4॥ <br><br> |
− | ऊधौ हमहिं न जोग सिखैयै । | + | ऊधौ हमहिं न जोग सिखैयै ।<br> |
− | जिहि उपदेश मिलै हरि हमकौं, सो ब्रत नेम बतैयै ॥ | + | जिहि उपदेश मिलै हरि हमकौं, सो ब्रत नेम बतैयै ॥<br> |
− | मुक्ति रहौ घर बैठि आपने,,निर्गुन सुनि दुख पैयै । | + | मुक्ति रहौ घर बैठि आपने,,निर्गुन सुनि दुख पैयै ।<br> |
− | जिहिं सिर केस कुसुम भरि गूँदे, कैसैं भस्म चढ़ैयै ॥ | + | जिहिं सिर केस कुसुम भरि गूँदे, कैसैं भस्म चढ़ैयै ॥<br> |
− | जानि जानि सब मगन भई हैं, आपुन आपु लखैयै । | + | जानि जानि सब मगन भई हैं, आपुन आपु लखैयै ।<br> |
− | सूरदास-प्रभु सनहु नवौ निधि, बहुरि कि इहिं ब्रज अइयै ॥5॥ | + | सूरदास-प्रभु सनहु नवौ निधि, बहुरि कि इहिं ब्रज अइयै ॥5॥<br><br> |
− | मधुकर स्याम हमारे ईस । | + | मधुकर स्याम हमारे ईस ।<br> |
− | तिनकौ ध्यान धरैं निसि बासर, औरहिं नवै न सीस ॥ | + | तिनकौ ध्यान धरैं निसि बासर, औरहिं नवै न सीस ॥<br> |
− | जोगिनि जाइ जोग उपदेसहु, जिनके मन दस-बीस । | + | जोगिनि जाइ जोग उपदेसहु, जिनके मन दस-बीस ।<br> |
− | एकै चित एकै वह मूरति, तिन चितवतिं दिन तीस ॥ | + | एकै चित एकै वह मूरति, तिन चितवतिं दिन तीस ॥<br> |
− | काहें निरगुन ग्यान आपनौ, जित कित डारत खीस । | + | काहें निरगुन ग्यान आपनौ, जित कित डारत खीस ।<br> |
− | सूरदास प्रभु नंदनंदन बिनु, हमरे को जगदीश ॥6॥ | + | सूरदास प्रभु नंदनंदन बिनु, हमरे को जगदीश ॥6॥ <br><br> |
− | सतगुरु चरन भजे बिनु विद्या, कहु, कैसैं कोउ पावै । | + | सतगुरु चरन भजे बिनु विद्या, कहु, कैसैं कोउ पावै ।<br> |
− | उपदेसक हरि दूरि रहे तैं, क्यौं हमरे मन आवै ॥ | + | उपदेसक हरि दूरि रहे तैं, क्यौं हमरे मन आवै ॥<br> |
− | जो हित कियौ तौ अधिक करहि किन, आपुन आनि सिखावैं । | + | जो हित कियौ तौ अधिक करहि किन, आपुन आनि सिखावैं ।<br> |
− | जोग बोझ तैं चलि न सकैं तौ, हमहीं क्यौं न बुलावैं ॥ | + | जोग बोझ तैं चलि न सकैं तौ, हमहीं क्यौं न बुलावैं ॥<br> |
− | जोग ज्ञान मुनि नगर तजे बरु, सघन गहन बन धावैं । | + | जोग ज्ञान मुनि नगर तजे बरु, सघन गहन बन धावैं ।<br> |
− | आसन मौन नेम मन संजम, बिपिन मध्य बनि आवैं ॥ | + | आसन मौन नेम मन संजम, बिपिन मध्य बनि आवैं ॥<br> |
− | आपुन कहैं करैं कछु औरै, हम सबहिनि डहकावैं । | + | आपुन कहैं करैं कछु औरै, हम सबहिनि डहकावैं ।<br> |
− | सूरदास ऊधौ सौं स्यामा, अति संकेत जनावैं ॥7॥ | + | सूरदास ऊधौ सौं स्यामा, अति संकेत जनावैं ॥7॥ <br><br> |
− | ऊधौ मन नहिं हाथ हमारैं । | + | ऊधौ मन नहिं हाथ हमारैं ।<br> |
− | रथ चढ़इ हरि संग गए लै, मथुरा जबहिं सिधारे ॥ | + | रथ चढ़इ हरि संग गए लै, मथुरा जबहिं सिधारे ॥<br> |
− | नातरु कहा जोग हम छाँड़हि, अति रुचि कै तुम ल्याए । | + | नातरु कहा जोग हम छाँड़हि, अति रुचि कै तुम ल्याए ।<br> |
− | हम तौ झँखतिं स्याम की करनी मन लै जोग पठाए ॥ | + | हम तौ झँखतिं स्याम की करनी मन लै जोग पठाए ॥<br> |
− | अजहूँ मन अपनौ हम पावैं, तुम तैं होइ तौ होइ । | + | अजहूँ मन अपनौ हम पावैं, तुम तैं होइ तौ होइ ।<br> |
− | सूर सपथ हमैं कोटि तिहारी, कही करैंगी सोइ ॥8॥ | + | सूर सपथ हमैं कोटि तिहारी, कही करैंगी सोइ ॥8॥ <br><br> |
− | ऊधौ मन न भए दस बीस । | + | ऊधौ मन न भए दस बीस ।<br> |
− | एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को आराधै ईस ॥ | + | एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को आराधै ईस ॥<br> |
− | इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस । | + | इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस ।<br> |
− | आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ॥ | + | आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ॥<br> |
− | तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस । | + | तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस ।<br> |
− | सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस ॥9॥ | + | सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस ॥9॥ <br><br> |
− | इहिं उर माखन चोर गड़े । | + | इहिं उर माखन चोर गड़े ।<br> |
− | अब कैसैं निकसत सुनि ऊधौ, तिरछे ह्वै जु अड़े ॥ | + | अब कैसैं निकसत सुनि ऊधौ, तिरछे ह्वै जु अड़े ॥<br> |
− | जदपि अहीर जसोदा-नंदन, कैसैं जात छँड़े । | + | जदपि अहीर जसोदा-नंदन, कैसैं जात छँड़े ।<br> |
− | ह्वाँ जादौपति प्रभु कहियत हैं, हमैं न लगत बड़े ॥ | + | ह्वाँ जादौपति प्रभु कहियत हैं, हमैं न लगत बड़े ॥<br> |
− | को बसुदेव देवकी नंदन, को जानै को बूझै । | + | को बसुदेव देवकी नंदन, को जानै को बूझै ।<br> |
− | सूर नंदनंदन के देखत, और न कोऊ सूझै ॥10॥ | + | सूर नंदनंदन के देखत, और न कोऊ सूझै ॥10॥ <br><br> |
− | मन मैं रह्यौ नाहिं न ठौर । | + | मन मैं रह्यौ नाहिं न ठौर ।<br> |
− | नंदनंदन अछत कैसैं, आनियै उर और ॥ | + | नंदनंदन अछत कैसैं, आनियै उर और ॥<br> |
− | चलत चितवत दिवस जागत, स्वप्न सोवत राति । | + | चलत चितवत दिवस जागत, स्वप्न सोवत राति ।<br> |
− | हृदय तैं वह मदन मूरति, छिन न इत उत जाति ॥ | + | हृदय तैं वह मदन मूरति, छिन न इत उत जाति ॥<br> |
− | कहत कथा अनेक ऊधौ, लोग लौभ दिखाइ । | + | कहत कथा अनेक ऊधौ, लोग लौभ दिखाइ ।<br> |
− | कह करौं मन प्रेम पूरन, घट न सिंधु समाइ ॥ | + | कह करौं मन प्रेम पूरन, घट न सिंधु समाइ ॥<br> |
− | स्याम गात सरोज आनन, ललित मदु मुख हास । | + | स्याम गात सरोज आनन, ललित मदु मुख हास ।<br> |
− | सूर इनकैं दरस कारन, मरत लोचन प्यास ॥11॥ | + | सूर इनकैं दरस कारन, मरत लोचन प्यास ॥11॥ <br><br> |
− | मधुकर स्याम हमारे चोर । | + | मधुकर स्याम हमारे चोर ।<br> |
− | मन हरि लियौ तनक चितवनि मैं, चपल नैन की कोर ॥ | + | मन हरि लियौ तनक चितवनि मैं, चपल नैन की कोर ॥<br> |
− | पकरे हुते हृदय उर अंतर, प्रेम प्रीति कैं जोर । | + | पकरे हुते हृदय उर अंतर, प्रेम प्रीति कैं जोर ।<br> |
− | गए छँड़ाइ तोरि सब बंधन , दै गए हँसनि अँकोर ॥ | + | गए छँड़ाइ तोरि सब बंधन , दै गए हँसनि अँकोर ॥<br> |
− | चौकि परीं जागत निसि बीती, दूर मिल्यौ इक भौंर । | + | चौकि परीं जागत निसि बीती, दूर मिल्यौ इक भौंर ।<br> |
− | दूरदास प्रभु सरबस लूट्यौ, नागर नवल-किसोर ॥12॥ | + | दूरदास प्रभु सरबस लूट्यौ, नागर नवल-किसोर ॥12॥ <br><br> |
− | सब दिन एकहिं से नहिं होते । | + | सब दिन एकहिं से नहिं होते ।<br> |
− | तब अलि ससि सीरौ अब तातौ, बयौ बिरह जरि मो तैं । | + | तब अलि ससि सीरौ अब तातौ, बयौ बिरह जरि मो तैं ।<br> |
− | तब षट मास रास-रस-अंतर, एकहु निमिष न जाने । | + | तब षट मास रास-रस-अंतर, एकहु निमिष न जाने । <br> |
− | अब औरै गति भई कान्ह बिनु पल पूरन जुग माने । | + | अब औरै गति भई कान्ह बिनु पल पूरन जुग माने ।<br> |
− | कहा मति जोग ज्ञान साखा स्रुति, ते किन कहे घनेरे । | + | कहा मति जोग ज्ञान साखा स्रुति, ते किन कहे घनेरे ।<br> |
− | अब कछु और सुहाइ सूर नहिं, सुमिरि स्याम गुनि केरे ॥13॥ | + | अब कछु और सुहाइ सूर नहिं, सुमिरि स्याम गुनि केरे ॥13॥ <br><br> |
− | सखी री स्याम सबै इक सार । | + | सखी री स्याम सबै इक सार ।<br> |
− | मीठे बचन सुहाए बोलत, अंतर जारनहार । | + | मीठे बचन सुहाए बोलत, अंतर जारनहार ।<br> |
− | भंवर कुरंग काक अरु कोकिल, कपटनि की चटसार । | + | भंवर कुरंग काक अरु कोकिल, कपटनि की चटसार ।<br> |
− | कमलनैन मधुपुरी सिधारे, मिटि गयो मंगलचार । | + | कमलनैन मधुपुरी सिधारे, मिटि गयो मंगलचार ।<br> |
− | सुनहु सखी री दोष न काहू, जो बिधि लिख्यौ लिलार । | + | सुनहु सखी री दोष न काहू, जो बिधि लिख्यौ लिलार ।<br> |
− | यह करतूति उनहिं की नाहीं, पूरब बिबिध बिचार ॥ | + | यह करतूति उनहिं की नाहीं, पूरब बिबिध बिचार ॥<br> |
− | कारी घटा देखि बादर की, सोभा देति अपार । | + | कारी घटा देखि बादर की, सोभा देति अपार ।<br> |
− | सूरदास सरिता सर पोषत, चातक करत पुकार ॥14॥ | + | सूरदास सरिता सर पोषत, चातक करत पुकार ॥14॥<br><br> |
− | बिलग जनि मानौ ऊधौ कारे । | + | बिलग जनि मानौ ऊधौ कारे ।<br> |
− | वह मथुरा काजर की ओबरी, जे आवैं ते कारे ॥ | + | वह मथुरा काजर की ओबरी, जे आवैं ते कारे ॥<br> |
− | तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे कुटिल सँवारे ॥ | + | तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे कुटिल सँवारे ॥<br> |
− | कमलनैन की कौन चलावै, सबहिनि मैं मनियारे ॥ | + | कमलनैन की कौन चलावै, सबहिनि मैं मनियारे ॥<br> |
− | मानौ नील माट तैं काढ़े, जमुना आइ पखारे । | + | मानौ नील माट तैं काढ़े, जमुना आइ पखारे ।<br> |
− | तातैं स्याम भई कालिंदी, सूर स्याम गुन न्यारे ॥15॥ | + | तातैं स्याम भई कालिंदी, सूर स्याम गुन न्यारे ॥15॥ <br><br> |
− | ऊधौ भली भई ब्रज आए । | + | ऊधौ भली भई ब्रज आए ।<br> |
− | बिधि कुलाल कीन्हे काँचे घट, ते तुम आनि पकाए ॥ | + | बिधि कुलाल कीन्हे काँचे घट, ते तुम आनि पकाए ॥<br> |
− | रंग दीन्हौं हो कान्ह साँवरैं, अँग-अँग चित्र बनाए । | + | रंग दीन्हौं हो कान्ह साँवरैं, अँग-अँग चित्र बनाए ।<br> |
− | यातैं गरे न नैन नेह तैं, अवधि अटा पर छाए ॥ | + | यातैं गरे न नैन नेह तैं, अवधि अटा पर छाए ॥<br> |
− | ब्रज करि अँवा जोग ईंधन करि, सुरति आनि सुलगाए । | + | ब्रज करि अँवा जोग ईंधन करि, सुरति आनि सुलगाए ।<br> |
− | फूँक उसास बिरह प्रजरनि सँग, ध्यान दरस सियराए ॥ | + | फूँक उसास बिरह प्रजरनि सँग, ध्यान दरस सियराए ॥<br> |
− | भरे सँपूरन सकल प्रेम-जल, छुवन न काहू पाए । | + | भरे सँपूरन सकल प्रेम-जल, छुवन न काहू पाए ।<br> |
− | राज-काज तैं गए सूर प्रभु , नँद-नंदन कर लाए ॥16॥ | + | राज-काज तैं गए सूर प्रभु , नँद-नंदन कर लाए ॥16॥ <br><br> |
− | जौ पै हिरदै माँझ हरी । | + | जौ पै हिरदै माँझ हरी ।<br> |
− | तौ कहि इती अवज्ञा उनपै, कैसैं सही परी ॥ | + | तौ कहि इती अवज्ञा उनपै, कैसैं सही परी ॥<br> |
− | तब दावानल दहन न पायौ, अब इहिं बिरह जरी । | + | तब दावानल दहन न पायौ, अब इहिं बिरह जरी ।<br> |
− | उर तैं निकसि नंद नंदन हम, सीतल क्यौं न करी ॥ | + | उर तैं निकसि नंद नंदन हम, सीतल क्यौं न करी ॥<br> |
− | दिन प्रति नैन इंद्र जल बरषत, घटत न एक घरी । | + | दिन प्रति नैन इंद्र जल बरषत, घटत न एक घरी ।<br> |
− | अति ही सीत भीत तन भींजत, गिरि अंचल न धरी ॥ | + | अति ही सीत भीत तन भींजत, गिरि अंचल न धरी ॥<br> |
− | कर-कंकन दरपन लै देखौ, इहिं अति अनख मरी । | + | कर-कंकन दरपन लै देखौ, इहिं अति अनख मरी ।<br> |
− | क्यौं अब जियहिं जोग सुनि सूरज, बिरहनि बिरह भरी ॥17॥ | + | क्यौं अब जियहिं जोग सुनि सूरज, बिरहनि बिरह भरी ॥17॥ <br><br> |
− | ऐसौ जोग न हम पै होइ । | + | ऐसौ जोग न हम पै होइ ।<br> |
− | आँखि मूँदि कह पावैं ढूँढ़े, अँधरे ज्यौं टकराइ ॥ | + | आँखि मूँदि कह पावैं ढूँढ़े, अँधरे ज्यौं टकराइ ॥<br> |
− | भसम लगावन कहत जु हमकौ, अंग कुंकमा घोइ । | + | भसम लगावन कहत जु हमकौ, अंग कुंकमा घोइ ।<br> |
− | सुनि कै बचन तुम्हारे ऊधौ, नैना रावत रोइ ॥ | + | सुनि कै बचन तुम्हारे ऊधौ, नैना रावत रोइ ॥<br> |
− | कुंतल कुटिल मुकुट कुंडल छबि, रही जु चित मैं पोइ । | + | कुंतल कुटिल मुकुट कुंडल छबि, रही जु चित मैं पोइ ।<br> |
− | सूरज प्रभु बिनु प्रान रहै नहिं, कोटि करौ किन कोइ ॥18॥ | + | सूरज प्रभु बिनु प्रान रहै नहिं, कोटि करौ किन कोइ ॥18॥ <br><br> |
− | हमसौं उनसौं कौन सगाई । | + | हमसौं उनसौं कौन सगाई ।<br> |
− | हम अहीर अबला ब्रजवासी , वै जदुपति जदुराई ॥ | + | हम अहीर अबला ब्रजवासी , वै जदुपति जदुराई ॥<br> |
− | कहा भयौ जु भए जदुनंनदन, अब यह पदवी पाई । | + | कहा भयौ जु भए जदुनंनदन, अब यह पदवी पाई ।<br> |
− | कुच न आवत घोष बसत की, तजि ब्रज गए पराई ॥ | + | कुच न आवत घोष बसत की, तजि ब्रज गए पराई ॥<br> |
− | ऐसे भए उहाँ जादौपति, गए गोप बिसराई । | + | ऐसे भए उहाँ जादौपति, गए गोप बिसराई ।<br> |
− | सूरदास यह ब्रज कौ नातौ, भूलि गए बलभाई ॥19॥ | + | सूरदास यह ब्रज कौ नातौ, भूलि गए बलभाई ॥19॥ <br><br> |
− | तौ हम मानै बात तुम्हारी । | + | तौ हम मानै बात तुम्हारी ।<br> |
− | अपनौ ब्रह्म दिखावहु ऊधौ, मुकुट पितांबर धारी ॥ | + | अपनौ ब्रह्म दिखावहु ऊधौ, मुकुट पितांबर धारी ॥<br> |
− | भनिहैं तब ताकौ सब गोपी, सहि रहिहैं बरु गारी । | + | भनिहैं तब ताकौ सब गोपी, सहि रहिहैं बरु गारी ।<br> |
− | भूत समान बतावत हमकैं, डारहु स्याम बिसारी ॥ | + | भूत समान बतावत हमकैं, डारहु स्याम बिसारी ॥<br> |
− | जे मुख सदा सुधा अँचवत हैं, ते विष क्यौं अधिकारी । | + | जे मुख सदा सुधा अँचवत हैं, ते विष क्यौं अधिकारी ।<br> |
− | सूरदास -प्रभु एक अँग पर, रीझि रहीं ब्रजनारी ॥20॥ | + | सूरदास -प्रभु एक अँग पर, रीझि रहीं ब्रजनारी ॥20॥ <br><br> |
− | ऊधौ जोग बिसरि जनि जाहु । | + | ऊधौ जोग बिसरि जनि जाहु ।<br> |
− | बाँधौ गाँठि छूटि परिहै कहुँ, फिरि पाछैं पछिताहु ॥ | + | बाँधौ गाँठि छूटि परिहै कहुँ, फिरि पाछैं पछिताहु ॥<br> |
− | ऐसौ बहुत अनूपम मधुकर, मरम न जानै और । | + | ऐसौ बहुत अनूपम मधुकर, मरम न जानै और ।<br> |
− | ब्रज बनितनि के नहीं काम की, तुम्हरेई ठौर ॥ | + | ब्रज बनितनि के नहीं काम की, तुम्हरेई ठौर ॥<br> |
− | जो हित करि पठयौ मनमोहन, सो हम तुमकौ दीनौं ॥21॥ | + | जो हित करि पठयौ मनमोहन, सो हम तुमकौ दीनौं ॥21॥ <br><br> |
− | ऊधौ काहे कौ भक्त कहावत । | + | ऊधौ काहे कौ भक्त कहावत । <br> |
− | जु पै जोग लिखि पठ्यौ हमकौ, तुमहुँ भस्म चढ़ावत ॥ | + | जु पै जोग लिखि पठ्यौ हमकौ, तुमहुँ भस्म चढ़ावत ॥<br> |
− | श्रृंगी मुद्रा भस्म अधारी, हमहीं कहा सिखावत । | + | श्रृंगी मुद्रा भस्म अधारी, हमहीं कहा सिखावत ।<br> |
− | कुबिजा अधिक स्याम की प्यारी, ताहिं नहीं पहिरावत ॥ | + | कुबिजा अधिक स्याम की प्यारी, ताहिं नहीं पहिरावत ॥<br> |
− | यह तौ हमकौं तबहिं न सिखयौ, जब तैं गाइ चरावत । | + | यह तौ हमकौं तबहिं न सिखयौ, जब तैं गाइ चरावत ।<br> |
− | सूरदास प्रभु कौं कहियौ अब, लिखि-लिखि पठावत ॥22॥ | + | सूरदास प्रभु कौं कहियौ अब, लिखि-लिखि पठावत ॥22॥ <br><br> |
− | (ऊधौ) ना हम बिरहिनि ना तुम दास | + | (ऊधौ) ना हम बिरहिनि ना तुम दास <br> |
− | कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास ॥ | + | कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास ॥<br> |
− | बिरही मीन मरै जल बिछुरैं , छाँड़ि जियन की आस । | + | बिरही मीन मरै जल बिछुरैं , छाँड़ि जियन की आस ।<br> |
− | दास भाव नहिं तजत पपीहा, बरषत मरत पियास ॥ | + | दास भाव नहिं तजत पपीहा, बरषत मरत पियास ॥<br> |
− | पंकज परम कमल मैं बिहरत, बिधि कियौ नीर निरास । | + | पंकज परम कमल मैं बिहरत, बिधि कियौ नीर निरास ।<br> |
− | राजिव रवि कौ दोष न मानत, ससि सौ सहज उदास ॥ | + | राजिव रवि कौ दोष न मानत, ससि सौ सहज उदास ॥<br> |
− | प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली, प्रीतम कैं बनवास । | + | प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली, प्रीतम कैं बनवास ।<br> |
− | सूर स्याम सौं दृढ़ ब्रत राख्यौ, मेटि जगत उपहास ॥23॥ | + | सूर स्याम सौं दृढ़ ब्रत राख्यौ, मेटि जगत उपहास ॥23॥<br><br> |
− | ऊधौ लै चल लै चल । | + | ऊधौ लै चल लै चल ।<br> |
− | जहँ वै सुंदर स्याम बिहारी, हमकौ तहँ लै चल ॥ | + | जहँ वै सुंदर स्याम बिहारी, हमकौ तहँ लै चल ॥<br> |
− | आवन-आवन कहि गए ऊधौ, करि गए हमसौं छल । | + | आवन-आवन कहि गए ऊधौ, करि गए हमसौं छल ।<br> |
− | हृदय की प्रीति स्याम जू जानत ,कितिक दूरि गोकुल ॥ | + | हृदय की प्रीति स्याम जू जानत ,कितिक दूरि गोकुल ॥<br> |
− | आपुन जाइ मधुपुरी छाए, उहाँ रहे हिलि मिल । | + | आपुन जाइ मधुपुरी छाए, उहाँ रहे हिलि मिल ।<br> |
− | सूरदास स्वामी के बिछुरैं , नैनि नीर प्रबल ॥24॥ | + | सूरदास स्वामी के बिछुरैं , नैनि नीर प्रबल ॥24॥<br><br> |
− | गुप्त मते की बात कहौं, जो कहौ न काहू आगैं। | + | गुप्त मते की बात कहौं, जो कहौ न काहू आगैं।<br> |
− | कै हम जानै कै हरि तुमहूँ, इतनी पावहिं माँगें ॥ | + | कै हम जानै कै हरि तुमहूँ, इतनी पावहिं माँगें ॥<br> |
− | एक बेर खेलत बृंदावन, कंटक चुभि गयौ पाइँ । | + | एक बेर खेलत बृंदावन, कंटक चुभि गयौ पाइँ ।<br> |
− | कंटक सौं कंटक लै काढ़्यौ, अपनें हाथ सुभाइ ॥ | + | कंटक सौं कंटक लै काढ़्यौ, अपनें हाथ सुभाइ ॥<br> |
− | एक दिवस बिहरत बन भीतर, मैं जु सुनाई भूख । | + | एक दिवस बिहरत बन भीतर, मैं जु सुनाई भूख ।<br> |
− | पाके फल वै देखि मनोहर, चढ़े कृपा करि रूख ॥ | + | पाके फल वै देखि मनोहर, चढ़े कृपा करि रूख ॥<br> |
− | ऐसी प्रीति हमारी उनकी, बसतें गोकुल बास । | + | ऐसी प्रीति हमारी उनकी, बसतें गोकुल बास ।<br> |
− | सूरदास प्रभु सब बिसराई, मधुबन कियौ निवास ॥25॥ | + | सूरदास प्रभु सब बिसराई, मधुबन कियौ निवास ॥25॥ <br><br> |
− | ऊधौ जौ हरि हितू तुम्हारे । | + | ऊधौ जौ हरि हितू तुम्हारे ।<br> |
− | तौ तुम कहियौ जाइ कृपा करि, ए दुख सबै हमारे ॥ | + | तौ तुम कहियौ जाइ कृपा करि, ए दुख सबै हमारे ॥<br> |
− | तन तरिवर उर स्वास पवन मैं, बिरग दवा अति जारे । | + | तन तरिवर उर स्वास पवन मैं, बिरग दवा अति जारे ।<br> |
− | नहिं सिरात नहिं जात छार ह्वै, सुलगि-सुलगि भए कारे ॥ | + | नहिं सिरात नहिं जात छार ह्वै, सुलगि-सुलगि भए कारे ॥<br> |
− | जद्यपि प्रेम उमँगि जल सींचे, बरषि-बरषि घन हारे । | + | जद्यपि प्रेम उमँगि जल सींचे, बरषि-बरषि घन हारे ।<br> |
− | जो सींचे इहिं भाँति जतन करि, तौ एतैं प्रतिपारे ॥ | + | जो सींचे इहिं भाँति जतन करि, तौ एतैं प्रतिपारे ॥<br> |
− | कीर कपोत कोकिला चातक, बधिक बियोग बिडारे । | + | कीर कपोत कोकिला चातक, बधिक बियोग बिडारे ।<br> |
− | क्यौ जीवैं इहिं भाँति सूर-प्रभु, ब्रज के लोग बिचारे ॥26॥ | + | क्यौ जीवैं इहिं भाँति सूर-प्रभु, ब्रज के लोग बिचारे ॥26॥ <br><br> |
− | बिलग हम मानैं ऊधौ काकौ । | + | बिलग हम मानैं ऊधौ काकौ ।<br> |
− | तरसत रहे बसुदेव देवकी, नहिं हित मातु पिता कौ ॥ | + | तरसत रहे बसुदेव देवकी, नहिं हित मातु पिता कौ ॥<br> |
− | काके मातु पिता कौ काकौ, दूध पियौ हरि जाकौ । | + | काके मातु पिता कौ काकौ, दूध पियौ हरि जाकौ । <br> |
− | नंद जसोदा लाड़ लड़ायौ, नाहिं भयौ हरि ताकौ ॥ | + | नंद जसोदा लाड़ लड़ायौ, नाहिं भयौ हरि ताकौ ॥<br> |
− | कहियौ जाइ बनाइ बात यह, को हित है अबला कौ । | + | कहियौ जाइ बनाइ बात यह, को हित है अबला कौ ।<br> |
− | सूरदास प्रभु प्रीति है कासौं, कुटिल मीत कुबिजा कौ ॥27॥ | + | सूरदास प्रभु प्रीति है कासौं, कुटिल मीत कुबिजा कौ ॥27॥ <br> |
− | जीवन मुख देखे कौ नीकौ । | + | जीवन मुख देखे कौ नीकौ ।<br> |
− | दरस, परस दिन राति पाइयत, स्याम पियारे पी कौ ॥ | + | दरस, परस दिन राति पाइयत, स्याम पियारे पी कौ ॥<br> |
− | सूनौ जोग कहा लै कीजै, जहाँ ज्यान है जी कौ । | + | सूनौ जोग कहा लै कीजै, जहाँ ज्यान है जी कौ ।<br> |
− | नैननि मूँदि मूँदि कह देखौ, बँधौ ज्ञान पोथी कौ ॥ | + | नैननि मूँदि मूँदि कह देखौ, बँधौ ज्ञान पोथी कौ ॥<br> |
− | आछे सुंदर स्याम हमारे, और जगत सब फीकौ । | + | आछे सुंदर स्याम हमारे, और जगत सब फीकौ ।<br> |
− | खाटी मही कहा रुचि मानै, सूर खवैया घी कौ ॥28॥ | + | खाटी मही कहा रुचि मानै, सूर खवैया घी कौ ॥28॥<br><br> |
− | अपने सगुन गोपालहिं माई, इहिं बिधि काहैं देति । | + | अपने सगुन गोपालहिं माई, इहिं बिधि काहैं देति ।<br> |
− | ऊधौ की इन मीठी बातनि, निर्गुन कैसें लेति ॥ | + | ऊधौ की इन मीठी बातनि, निर्गुन कैसें लेति ॥<br> |
− | धर्म, अर्थ कामना सुनावत, सब सुख मुक्ति समेति । | + | धर्म, अर्थ कामना सुनावत, सब सुख मुक्ति समेति ।<br> |
− | काकी भूख गई मन लाड़ू, सो देखहु चित चेति ॥ | + | काकी भूख गई मन लाड़ू, सो देखहु चित चेति ॥<br> |
− | जाकौ मोक्ष बिचारत बरनत, निगम कहत हैं नेति । | + | जाकौ मोक्ष बिचारत बरनत, निगम कहत हैं नेति ।<br> |
− | सूर स्याम तजि को भुस फटकै, मधुप तुम्हारे हेति ॥29॥ | + | सूर स्याम तजि को भुस फटकै, मधुप तुम्हारे हेति ॥29॥ <br><br> |
23:32, 4 अक्टूबर 2007 के समय का अवतरण
गोपी सुनहु हरि संदेस ।
कह्यौ पूरन ब्रह्म ध्यावहु, त्रिगुन मिथ्या भेष ॥
मैं कहौं सो सत्य मानहु, सगुन डारहु नाखि ।
पंच त्रय-गुन सकल देही, जगत ऐसौ भाषि ॥
ज्ञान बिनु नर-मुक्ति नाहीं, यह विषय संसार ।
रूप-रेख, न नाम जल थल, बरन अबरन सार ॥
मातु पितु कोउ नाहिं नारी, जगत मिथ्या लाइ ।
सूर सुख-दुख नहीं जाकैं, भजौ ताकौं जाइ ॥1॥
ऐसी बात कहौ जनि ऊधौ ।
कमलनैन की कानि करति हैं, आवत बचन न सूधौ ॥
बातनि ही उड़ि जाहिं और ज्यौं, त्यौं नाहीं हम काँची ।
मन, बच, कर्म सोधि एकै मत, नंद-नंदन रँग राँची ॥
सो कछु जतन करौ पालागौ, मिटै हियै की सूल ।
मुरलीधरहिं आनि दिखरावहु, ओढ़े पीत दुकूल ॥
इनहीं बातनि भए स्याम तनु , मिलवत हौ गढ़ि छोलि ।
सूर बचन सुनि रह्यौ ठगौसौ, बहुरि न आयौ बोलि ॥2॥
फिरि फिरि कहा बनावत बात ।
प्रात काल उठि खेलत ऊधौ, घर घर माखन खात ॥
जिनकी बात कहत तुम हमसौं, सो है हमसौं दूरि ।
ह्याँ हैं निकट जसोदा-नंदन, प्रान सजीवन मूरि ॥
बालक संग लिऐँ दधि चोरत, खात खवावत डोलत ।
सूर सीस नीचौ कत नावत, अब काहैं नहिं बोलत ॥3॥
फिरि-फिरि कहा सिखावत मौन ॥
बचन दुसह लागत अलि तेरे, ज्यौं पजरे पर लौन ॥
सृंगी, मुद्रा, भस्म, त्वचा-मृग, अरु अवराधन पौन ।
हम अबला अहीरि सठ मधुकर,धरि जानहिं कहि कौन ॥
यह मत जाइ तिनहिं तुम सिखवहु, जिनहिं आजु सब सोहत ।
सूरदास कहुँ सुनी न देखी, पोत सूतरी पोहत ॥4॥
ऊधौ हमहिं न जोग सिखैयै ।
जिहि उपदेश मिलै हरि हमकौं, सो ब्रत नेम बतैयै ॥
मुक्ति रहौ घर बैठि आपने,,निर्गुन सुनि दुख पैयै ।
जिहिं सिर केस कुसुम भरि गूँदे, कैसैं भस्म चढ़ैयै ॥
जानि जानि सब मगन भई हैं, आपुन आपु लखैयै ।
सूरदास-प्रभु सनहु नवौ निधि, बहुरि कि इहिं ब्रज अइयै ॥5॥
मधुकर स्याम हमारे ईस ।
तिनकौ ध्यान धरैं निसि बासर, औरहिं नवै न सीस ॥
जोगिनि जाइ जोग उपदेसहु, जिनके मन दस-बीस ।
एकै चित एकै वह मूरति, तिन चितवतिं दिन तीस ॥
काहें निरगुन ग्यान आपनौ, जित कित डारत खीस ।
सूरदास प्रभु नंदनंदन बिनु, हमरे को जगदीश ॥6॥
सतगुरु चरन भजे बिनु विद्या, कहु, कैसैं कोउ पावै ।
उपदेसक हरि दूरि रहे तैं, क्यौं हमरे मन आवै ॥
जो हित कियौ तौ अधिक करहि किन, आपुन आनि सिखावैं ।
जोग बोझ तैं चलि न सकैं तौ, हमहीं क्यौं न बुलावैं ॥
जोग ज्ञान मुनि नगर तजे बरु, सघन गहन बन धावैं ।
आसन मौन नेम मन संजम, बिपिन मध्य बनि आवैं ॥
आपुन कहैं करैं कछु औरै, हम सबहिनि डहकावैं ।
सूरदास ऊधौ सौं स्यामा, अति संकेत जनावैं ॥7॥
ऊधौ मन नहिं हाथ हमारैं ।
रथ चढ़इ हरि संग गए लै, मथुरा जबहिं सिधारे ॥
नातरु कहा जोग हम छाँड़हि, अति रुचि कै तुम ल्याए ।
हम तौ झँखतिं स्याम की करनी मन लै जोग पठाए ॥
अजहूँ मन अपनौ हम पावैं, तुम तैं होइ तौ होइ ।
सूर सपथ हमैं कोटि तिहारी, कही करैंगी सोइ ॥8॥
ऊधौ मन न भए दस बीस ।
एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को आराधै ईस ॥
इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस ।
आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ॥
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस ।
सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस ॥9॥
इहिं उर माखन चोर गड़े ।
अब कैसैं निकसत सुनि ऊधौ, तिरछे ह्वै जु अड़े ॥
जदपि अहीर जसोदा-नंदन, कैसैं जात छँड़े ।
ह्वाँ जादौपति प्रभु कहियत हैं, हमैं न लगत बड़े ॥
को बसुदेव देवकी नंदन, को जानै को बूझै ।
सूर नंदनंदन के देखत, और न कोऊ सूझै ॥10॥
मन मैं रह्यौ नाहिं न ठौर ।
नंदनंदन अछत कैसैं, आनियै उर और ॥
चलत चितवत दिवस जागत, स्वप्न सोवत राति ।
हृदय तैं वह मदन मूरति, छिन न इत उत जाति ॥
कहत कथा अनेक ऊधौ, लोग लौभ दिखाइ ।
कह करौं मन प्रेम पूरन, घट न सिंधु समाइ ॥
स्याम गात सरोज आनन, ललित मदु मुख हास ।
सूर इनकैं दरस कारन, मरत लोचन प्यास ॥11॥
मधुकर स्याम हमारे चोर ।
मन हरि लियौ तनक चितवनि मैं, चपल नैन की कोर ॥
पकरे हुते हृदय उर अंतर, प्रेम प्रीति कैं जोर ।
गए छँड़ाइ तोरि सब बंधन , दै गए हँसनि अँकोर ॥
चौकि परीं जागत निसि बीती, दूर मिल्यौ इक भौंर ।
दूरदास प्रभु सरबस लूट्यौ, नागर नवल-किसोर ॥12॥
सब दिन एकहिं से नहिं होते ।
तब अलि ससि सीरौ अब तातौ, बयौ बिरह जरि मो तैं ।
तब षट मास रास-रस-अंतर, एकहु निमिष न जाने ।
अब औरै गति भई कान्ह बिनु पल पूरन जुग माने ।
कहा मति जोग ज्ञान साखा स्रुति, ते किन कहे घनेरे ।
अब कछु और सुहाइ सूर नहिं, सुमिरि स्याम गुनि केरे ॥13॥
सखी री स्याम सबै इक सार ।
मीठे बचन सुहाए बोलत, अंतर जारनहार ।
भंवर कुरंग काक अरु कोकिल, कपटनि की चटसार ।
कमलनैन मधुपुरी सिधारे, मिटि गयो मंगलचार ।
सुनहु सखी री दोष न काहू, जो बिधि लिख्यौ लिलार ।
यह करतूति उनहिं की नाहीं, पूरब बिबिध बिचार ॥
कारी घटा देखि बादर की, सोभा देति अपार ।
सूरदास सरिता सर पोषत, चातक करत पुकार ॥14॥
बिलग जनि मानौ ऊधौ कारे ।
वह मथुरा काजर की ओबरी, जे आवैं ते कारे ॥
तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे कुटिल सँवारे ॥
कमलनैन की कौन चलावै, सबहिनि मैं मनियारे ॥
मानौ नील माट तैं काढ़े, जमुना आइ पखारे ।
तातैं स्याम भई कालिंदी, सूर स्याम गुन न्यारे ॥15॥
ऊधौ भली भई ब्रज आए ।
बिधि कुलाल कीन्हे काँचे घट, ते तुम आनि पकाए ॥
रंग दीन्हौं हो कान्ह साँवरैं, अँग-अँग चित्र बनाए ।
यातैं गरे न नैन नेह तैं, अवधि अटा पर छाए ॥
ब्रज करि अँवा जोग ईंधन करि, सुरति आनि सुलगाए ।
फूँक उसास बिरह प्रजरनि सँग, ध्यान दरस सियराए ॥
भरे सँपूरन सकल प्रेम-जल, छुवन न काहू पाए ।
राज-काज तैं गए सूर प्रभु , नँद-नंदन कर लाए ॥16॥
जौ पै हिरदै माँझ हरी ।
तौ कहि इती अवज्ञा उनपै, कैसैं सही परी ॥
तब दावानल दहन न पायौ, अब इहिं बिरह जरी ।
उर तैं निकसि नंद नंदन हम, सीतल क्यौं न करी ॥
दिन प्रति नैन इंद्र जल बरषत, घटत न एक घरी ।
अति ही सीत भीत तन भींजत, गिरि अंचल न धरी ॥
कर-कंकन दरपन लै देखौ, इहिं अति अनख मरी ।
क्यौं अब जियहिं जोग सुनि सूरज, बिरहनि बिरह भरी ॥17॥
ऐसौ जोग न हम पै होइ ।
आँखि मूँदि कह पावैं ढूँढ़े, अँधरे ज्यौं टकराइ ॥
भसम लगावन कहत जु हमकौ, अंग कुंकमा घोइ ।
सुनि कै बचन तुम्हारे ऊधौ, नैना रावत रोइ ॥
कुंतल कुटिल मुकुट कुंडल छबि, रही जु चित मैं पोइ ।
सूरज प्रभु बिनु प्रान रहै नहिं, कोटि करौ किन कोइ ॥18॥
हमसौं उनसौं कौन सगाई ।
हम अहीर अबला ब्रजवासी , वै जदुपति जदुराई ॥
कहा भयौ जु भए जदुनंनदन, अब यह पदवी पाई ।
कुच न आवत घोष बसत की, तजि ब्रज गए पराई ॥
ऐसे भए उहाँ जादौपति, गए गोप बिसराई ।
सूरदास यह ब्रज कौ नातौ, भूलि गए बलभाई ॥19॥
तौ हम मानै बात तुम्हारी ।
अपनौ ब्रह्म दिखावहु ऊधौ, मुकुट पितांबर धारी ॥
भनिहैं तब ताकौ सब गोपी, सहि रहिहैं बरु गारी ।
भूत समान बतावत हमकैं, डारहु स्याम बिसारी ॥
जे मुख सदा सुधा अँचवत हैं, ते विष क्यौं अधिकारी ।
सूरदास -प्रभु एक अँग पर, रीझि रहीं ब्रजनारी ॥20॥
ऊधौ जोग बिसरि जनि जाहु ।
बाँधौ गाँठि छूटि परिहै कहुँ, फिरि पाछैं पछिताहु ॥
ऐसौ बहुत अनूपम मधुकर, मरम न जानै और ।
ब्रज बनितनि के नहीं काम की, तुम्हरेई ठौर ॥
जो हित करि पठयौ मनमोहन, सो हम तुमकौ दीनौं ॥21॥
ऊधौ काहे कौ भक्त कहावत ।
जु पै जोग लिखि पठ्यौ हमकौ, तुमहुँ भस्म चढ़ावत ॥
श्रृंगी मुद्रा भस्म अधारी, हमहीं कहा सिखावत ।
कुबिजा अधिक स्याम की प्यारी, ताहिं नहीं पहिरावत ॥
यह तौ हमकौं तबहिं न सिखयौ, जब तैं गाइ चरावत ।
सूरदास प्रभु कौं कहियौ अब, लिखि-लिखि पठावत ॥22॥
(ऊधौ) ना हम बिरहिनि ना तुम दास
कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास ॥
बिरही मीन मरै जल बिछुरैं , छाँड़ि जियन की आस ।
दास भाव नहिं तजत पपीहा, बरषत मरत पियास ॥
पंकज परम कमल मैं बिहरत, बिधि कियौ नीर निरास ।
राजिव रवि कौ दोष न मानत, ससि सौ सहज उदास ॥
प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली, प्रीतम कैं बनवास ।
सूर स्याम सौं दृढ़ ब्रत राख्यौ, मेटि जगत उपहास ॥23॥
ऊधौ लै चल लै चल ।
जहँ वै सुंदर स्याम बिहारी, हमकौ तहँ लै चल ॥
आवन-आवन कहि गए ऊधौ, करि गए हमसौं छल ।
हृदय की प्रीति स्याम जू जानत ,कितिक दूरि गोकुल ॥
आपुन जाइ मधुपुरी छाए, उहाँ रहे हिलि मिल ।
सूरदास स्वामी के बिछुरैं , नैनि नीर प्रबल ॥24॥
गुप्त मते की बात कहौं, जो कहौ न काहू आगैं।
कै हम जानै कै हरि तुमहूँ, इतनी पावहिं माँगें ॥
एक बेर खेलत बृंदावन, कंटक चुभि गयौ पाइँ ।
कंटक सौं कंटक लै काढ़्यौ, अपनें हाथ सुभाइ ॥
एक दिवस बिहरत बन भीतर, मैं जु सुनाई भूख ।
पाके फल वै देखि मनोहर, चढ़े कृपा करि रूख ॥
ऐसी प्रीति हमारी उनकी, बसतें गोकुल बास ।
सूरदास प्रभु सब बिसराई, मधुबन कियौ निवास ॥25॥
ऊधौ जौ हरि हितू तुम्हारे ।
तौ तुम कहियौ जाइ कृपा करि, ए दुख सबै हमारे ॥
तन तरिवर उर स्वास पवन मैं, बिरग दवा अति जारे ।
नहिं सिरात नहिं जात छार ह्वै, सुलगि-सुलगि भए कारे ॥
जद्यपि प्रेम उमँगि जल सींचे, बरषि-बरषि घन हारे ।
जो सींचे इहिं भाँति जतन करि, तौ एतैं प्रतिपारे ॥
कीर कपोत कोकिला चातक, बधिक बियोग बिडारे ।
क्यौ जीवैं इहिं भाँति सूर-प्रभु, ब्रज के लोग बिचारे ॥26॥
बिलग हम मानैं ऊधौ काकौ ।
तरसत रहे बसुदेव देवकी, नहिं हित मातु पिता कौ ॥
काके मातु पिता कौ काकौ, दूध पियौ हरि जाकौ ।
नंद जसोदा लाड़ लड़ायौ, नाहिं भयौ हरि ताकौ ॥
कहियौ जाइ बनाइ बात यह, को हित है अबला कौ ।
सूरदास प्रभु प्रीति है कासौं, कुटिल मीत कुबिजा कौ ॥27॥
जीवन मुख देखे कौ नीकौ ।
दरस, परस दिन राति पाइयत, स्याम पियारे पी कौ ॥
सूनौ जोग कहा लै कीजै, जहाँ ज्यान है जी कौ ।
नैननि मूँदि मूँदि कह देखौ, बँधौ ज्ञान पोथी कौ ॥
आछे सुंदर स्याम हमारे, और जगत सब फीकौ ।
खाटी मही कहा रुचि मानै, सूर खवैया घी कौ ॥28॥
अपने सगुन गोपालहिं माई, इहिं बिधि काहैं देति ।
ऊधौ की इन मीठी बातनि, निर्गुन कैसें लेति ॥
धर्म, अर्थ कामना सुनावत, सब सुख मुक्ति समेति ।
काकी भूख गई मन लाड़ू, सो देखहु चित चेति ॥
जाकौ मोक्ष बिचारत बरनत, निगम कहत हैं नेति ।
सूर स्याम तजि को भुस फटकै, मधुप तुम्हारे हेति ॥29॥