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"धुँआ (34) / हरबिन्दर सिंह गिल" के अवतरणों में अंतर

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मैं एक चित्रकार के पास गया
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क्या इस कविता की पंक्तियों से  
जो अपने रंगो से
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धुएँ का भाव साफ होकर
इस धुएँ का चित्र बनाकर
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समाज के सामने आ सकेगा
समाज के सामने
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प्रदर्शनी में रख सके
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ताकि वह मानव को
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अपने ही कुकर्मों का रूप दिखा सके
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उसे अपनी ही आत्मा का
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काला रंग दिखाई दे सके ।  
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उस चित्रकार ने पूछा
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भाव समझ भी लिया यदि मानव ने  
बताओ मुझे उन दीवारों को
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क्या उसे अर्थ दे सकेगा
जहां धुएँ का चित्र प्रदर्शन करना है
+
या फिर उसे मंचो पर सुनाकर
देखकर उन दीवारों को
+
मानवता की दुहाई देकर
चित्रकार ने कहा
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चुपचाप उन्हीं गलियों में वापिस जाकर
कल यह कमरा प्रदर्शनी के लिए
+
इसी धुएँ में रहने का
तैयार हो जाएगा
+
आदि तो नहीं हो जाएगा
समाज इसका अवलोकन कर सकेगा
+
  
परंतु घंटे बीत गए, पहर बीत गये
+
यदि होगा, क्योंोकि  यह भाव नया नहीं है
दिन पर दिन बीत गये, सालों बीत गये
+
ही धर्म ग्रन्थों के उपदेशों से ज्यादा मूल्यवान है
मगर किसी की हिम्मत नहीं हुई देख सकूं
+
यदि समझ सकते हो गहराई
अपने ही आत्मा के घिनौने स्वरूप को
+
धार्मिक उपदेशों  के दार्शनिकता की
जिसे उस चित्रकार ने अपने ही खून के रंग से
+
न उठता प्रश्न सपने में भी
दिया था स्वरूप उन दीवारों पर धुएँ के चित्र को
+
इस धुएँ के उद्गम का
 
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09:16, 8 फ़रवरी 2013 के समय का अवतरण

क्या इस कविता की पंक्तियों से
धुएँ का भाव साफ होकर
समाज के सामने आ सकेगा ।

भाव समझ भी लिया यदि मानव ने
क्या उसे अर्थ दे सकेगा
या फिर उसे मंचो पर सुनाकर
मानवता की दुहाई देकर
चुपचाप उन्हीं गलियों में वापिस जाकर
इसी धुएँ में रहने का
आदि तो नहीं हो जाएगा ।

यदि होगा, क्योंोकि यह भाव नया नहीं है
न ही धर्म ग्रन्थों के उपदेशों से ज्यादा मूल्यवान है
यदि समझ सकते हो गहराई
धार्मिक उपदेशों के दार्शनिकता की
न उठता प्रश्न सपने में भी
इस धुएँ के उद्गम का ।