भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बीज व्यथा / ज्ञानेन्द्रपति" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 +
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=ज्ञानेन्द्रपति
 
|रचनाकार=ज्ञानेन्द्रपति
 
|संग्रह=संशयात्मा / ज्ञानेन्द्रपति
 
|संग्रह=संशयात्मा / ज्ञानेन्द्रपति
 
}}
 
}}
 
+
<poem>
 
+
 
वे बीज
 
वे बीज
 
 
जो बखारी में बन्द
 
जो बखारी में बन्द
 
 
कुठलों में सहेजे
 
कुठलों में सहेजे
 
 
हण्डियों में जुगोए
 
हण्डियों में जुगोए
 
 
दिनोदिन सूखते देखते थे मेघ-स्वप्न
 
दिनोदिन सूखते देखते थे मेघ-स्वप्न
 
 
चिलकती दुपहरिया में
 
चिलकती दुपहरिया में
 
 
उठँगी देह की मूँदी आँखों से
 
उठँगी देह की मूँदी आँखों से
 
 
उनींदे गेह के अनमुँद गोखों से
 
उनींदे गेह के अनमुँद गोखों से
 
 
निकलकर
 
निकलकर
 
 
खेतों में पीली तितलियों की तरह मँडराते थे
 
खेतों में पीली तितलियों की तरह मँडराते थे
 
 
वे बीज-अनन्य अन्नों के एकल बीज
 
वे बीज-अनन्य अन्नों के एकल बीज
 
 
अनादि जीवन-परम्परा के अन्तिम वंशज
 
अनादि जीवन-परम्परा के अन्तिम वंशज
 
 
भारतभूमि के अन्नमय कोश के मधुमय प्राण
 
भारतभूमि के अन्नमय कोश के मधुमय प्राण
 
 
तितलियों की तरह ही मार दिये गये
 
तितलियों की तरह ही मार दिये गये
 
 
मरी पूरबी तितलियों की तरह ही
 
मरी पूरबी तितलियों की तरह ही
 
 
नायाब नमूनों की तरह जतन से सँजो रखे गये हैं वे
 
नायाब नमूनों की तरह जतन से सँजो रखे गये हैं वे
 
 
वहाँ-सुदूर पच्छिम के जीन-बैंक में
 
वहाँ-सुदूर पच्छिम के जीन-बैंक में
 
 
बीज-संग्रहालय में
 
बीज-संग्रहालय में
 
 
सुदूर पच्छिम जो उतना दूर भी नहीं है
 
सुदूर पच्छिम जो उतना दूर भी नहीं है
 
 
बस उतना ही जितना निवाले से मुँह
 
बस उतना ही जितना निवाले से मुँह
 
 
सुदूर पच्छिम जो पुरातन मायावी स्वर्ग का है अधुनातन प्रतिरूप
 
सुदूर पच्छिम जो पुरातन मायावी स्वर्ग का है अधुनातन प्रतिरूप
 
 
नन्दनवन अनिन्द्य
 
नन्दनवन अनिन्द्य
 
 
जहाँ से निकलकर
 
जहाँ से निकलकर
 
 
आते हैं वे पुष्ट दुष्ट संकर बीज
 
आते हैं वे पुष्ट दुष्ट संकर बीज
 
 
भारत के खेतों पर छा जाने
 
भारत के खेतों पर छा जाने
 
 
दुबले एकल भारतीय बीजों को बहियाकर
 
दुबले एकल भारतीय बीजों को बहियाकर
 
 
आते हैं वे आक्रान्ता बीज टिड्डी दलों की तरह छाते आकाश
 
आते हैं वे आक्रान्ता बीज टिड्डी दलों की तरह छाते आकाश
 
 
भूमि को अँधारते
 
भूमि को अँधारते
 
 
यहाँ की मिट्टी में जड़ें जमाने
 
यहाँ की मिट्टी में जड़ें जमाने
 
 
फैलने-फूलने
 
फैलने-फूलने
 
 
रासायनिक खादों और कीटनाशकों के जहरीले संयंत्रों की
 
रासायनिक खादों और कीटनाशकों के जहरीले संयंत्रों की
 
 
आयातित तकनीक आती है पीछे-पीछे
 
आयातित तकनीक आती है पीछे-पीछे
 
 
तुम्हारा घर उजाड़कर अपना घर भरनेवाली आयातित तकनीक
 
तुम्हारा घर उजाड़कर अपना घर भरनेवाली आयातित तकनीक
 
 
यहाँ के अन्न-जल में जहर भरनेवाली
 
यहाँ के अन्न-जल में जहर भरनेवाली
 
 
जहर भरनेवाली शिशुमुख से लगी माँ की छाती के अमृतोपम दूध तक
 
जहर भरनेवाली शिशुमुख से लगी माँ की छाती के अमृतोपम दूध तक
 
 
क़हर ढानेवाली बग़ैर कुहराम
 
क़हर ढानेवाली बग़ैर कुहराम
 
 
वे बीज
 
वे बीज
 
 
भारतभूमि के अद्भुत जीवन-स्फुलिंग
 
भारतभूमि के अद्भुत जीवन-स्फुलिंग
 
 
अन्नात्मा अनन्य
 
अन्नात्मा अनन्य
 
 
जो यहाँ बस बहुत बूढ़े किसानों की स्मृति में ही बचे हुए हैं
 
जो यहाँ बस बहुत बूढ़े किसानों की स्मृति में ही बचे हुए हैं
 
 
दिनोदिन धुँधलाते-दूर से दूरतर
 
दिनोदिन धुँधलाते-दूर से दूरतर
 
 
खोए जाते निर्जल अतीत में
 
खोए जाते निर्जल अतीत में
 
 
जाते-जाते हमें सजल आँखों से देखते हैं
 
जाते-जाते हमें सजल आँखों से देखते हैं
 
 
कि हों हमारी भी आँखें सजल
 
कि हों हमारी भी आँखें सजल
 
 
कि उन्हें बस अँजुरी-भर ही जल चाहिए था जीते जी सिंचन के लिए
 
कि उन्हें बस अँजुरी-भर ही जल चाहिए था जीते जी सिंचन के लिए
 
 
और अब तर्पण के लिए
 
और अब तर्पण के लिए
 
 
बस अँजुरी-भर ही जल
 
बस अँजुरी-भर ही जल
 
 
वे नहीं हैं आधुनिक पुष्ट दुष्ट संकर बीज-
 
वे नहीं हैं आधुनिक पुष्ट दुष्ट संकर बीज-
 
 
क्रीम-पाउडर की तरह देह में रासायनिक खाद-कीटनाशक मले
 
क्रीम-पाउडर की तरह देह में रासायनिक खाद-कीटनाशक मले
 
 
बड़े-बड़े बाँधों के डुबाँव जल के बाथ-टब में नहाते लहलहे ।
 
बड़े-बड़े बाँधों के डुबाँव जल के बाथ-टब में नहाते लहलहे ।
 
+
</poem>
 
+
(कविता संग्रह '''संशयात्मा''' से)
+

12:24, 12 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण

वे बीज
जो बखारी में बन्द
कुठलों में सहेजे
हण्डियों में जुगोए
दिनोदिन सूखते देखते थे मेघ-स्वप्न
चिलकती दुपहरिया में
उठँगी देह की मूँदी आँखों से
उनींदे गेह के अनमुँद गोखों से
निकलकर
खेतों में पीली तितलियों की तरह मँडराते थे
वे बीज-अनन्य अन्नों के एकल बीज
अनादि जीवन-परम्परा के अन्तिम वंशज
भारतभूमि के अन्नमय कोश के मधुमय प्राण
तितलियों की तरह ही मार दिये गये
मरी पूरबी तितलियों की तरह ही
नायाब नमूनों की तरह जतन से सँजो रखे गये हैं वे
वहाँ-सुदूर पच्छिम के जीन-बैंक में
बीज-संग्रहालय में
सुदूर पच्छिम जो उतना दूर भी नहीं है
बस उतना ही जितना निवाले से मुँह
सुदूर पच्छिम जो पुरातन मायावी स्वर्ग का है अधुनातन प्रतिरूप
नन्दनवन अनिन्द्य
जहाँ से निकलकर
आते हैं वे पुष्ट दुष्ट संकर बीज
भारत के खेतों पर छा जाने
दुबले एकल भारतीय बीजों को बहियाकर
आते हैं वे आक्रान्ता बीज टिड्डी दलों की तरह छाते आकाश
भूमि को अँधारते
यहाँ की मिट्टी में जड़ें जमाने
फैलने-फूलने
रासायनिक खादों और कीटनाशकों के जहरीले संयंत्रों की
आयातित तकनीक आती है पीछे-पीछे
तुम्हारा घर उजाड़कर अपना घर भरनेवाली आयातित तकनीक
यहाँ के अन्न-जल में जहर भरनेवाली
जहर भरनेवाली शिशुमुख से लगी माँ की छाती के अमृतोपम दूध तक
क़हर ढानेवाली बग़ैर कुहराम
वे बीज
भारतभूमि के अद्भुत जीवन-स्फुलिंग
अन्नात्मा अनन्य
जो यहाँ बस बहुत बूढ़े किसानों की स्मृति में ही बचे हुए हैं
दिनोदिन धुँधलाते-दूर से दूरतर
खोए जाते निर्जल अतीत में
जाते-जाते हमें सजल आँखों से देखते हैं
कि हों हमारी भी आँखें सजल
कि उन्हें बस अँजुरी-भर ही जल चाहिए था जीते जी सिंचन के लिए
और अब तर्पण के लिए
बस अँजुरी-भर ही जल
वे नहीं हैं आधुनिक पुष्ट दुष्ट संकर बीज-
क्रीम-पाउडर की तरह देह में रासायनिक खाद-कीटनाशक मले
बड़े-बड़े बाँधों के डुबाँव जल के बाथ-टब में नहाते लहलहे ।