भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मुखौटा / मायानन्द मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मायानन्द मिश्र |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} {{K...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 46: पंक्ति 46:
 
आ तहियासँ
 
आ तहियासँ
 
ओ बिनु मुखौटाक कहियो सड़क पर नहि बहराएल
 
ओ बिनु मुखौटाक कहियो सड़क पर नहि बहराएल
 +
 +
और अब यही कविता हिन्दी में पढ़ें
 +
 +
उस दिन एक अद्भुत घटना घटी
 +
वह बिना मुखौटा लगाए चला आया था सड़क पर
 +
आश्चर्य !
 +
आश्चर्य यह कि उसे पहचान नहीं पा रहा था कोई
 +
लोग उसे पहचानते थे सिर्फ मुखौटे के साथ
 +
लोग उसे पहचानते थे मुखौटे की भंगिमा के साथ
 +
लोग मुखौटे की नकली हँसी को ही समझते थे असल हँसी
 +
मुखौटा ही बन गई थी उसकी वास्तविकता
 +
बन गई थी उसका अस्तित्व
 +
वह घबरा गया
 +
देने लगा अपना परिचय
 +
देता ही रहा अपना परिचय
 +
देखिए, मैं, मैं ही हूँ, इसी शहर का हूँ
 +
देखिए--
 +
बाढ़ में बहती चीज़ों की तरह सड़क पर बहती जा रही छोड़विहीन अनियन्त्रित भीड़
 +
चौराहा भरा हुआ है हिंसक जानवरों से
 +
गली में है रोशनी से भरा अँधियारा
 +
कई हँसी से होने वाली आवाज़, कई हाथ
 +
सब कुछ है अपने इसी शहर का
 +
है या नहीं?
 +
देखिए
 +
सड़क के नुक्कड़ पर रटे-रटाए
 +
प्रलाप करती सफ़ेद धोती कुर्ता-बंडी
 +
सड़क पर, ब्लाउज के पारदर्शी फीते को नोचते
 +
पीछे-पीछे आती कई घिनौनी दृष्टियाँ
 +
देखिए
 +
अस्पताल के बरामदे पर नकली दवाई से दम तोड़ते असली मरीज
 +
एसेम्बली के गेट पर गोली खाती भूखी भीड़
 +
वकालतख़ाने में कानून को बिकती जिल्दहीन क़िताब
 +
मैं कह सकता हूँ सभी बातें अपने नगर को लेकर
 +
मैं इसी शहर का हूँ, विश्वास करें
 +
लेकिन लोगों ने कर दिया पहचानने से इनकार
 +
वह घबरा गया, डर गया और  भागा अपने घर की ओर
 +
घर जाकर फिर से पहन लिया उसने अपना मुखौटा
 +
तो पहचानने लगे सब उसे तुरन्त
 +
और  उस दिन से
 +
वह कभी भी बाहर सड़क पर नहीं आया बिना मुखौटा लगाए।
 +
 +
अनुवाद: विनीत उत्पल
 
</poem>
 
</poem>

17:01, 31 अगस्त 2013 के समय का अवतरण

ओहि दिन अद्भूते घटना घटलै
ओ बिनु मुखौटा लगौनहि सड़क पर चलि आएल छल
आश्चर्य !
आश्चर्य जे ओकरा किया चिन्हिए नहि रहल छलै
लोक मात्र ओकरा मुखौटेक संग चिन्हैत छलै
मुखौटेक भंगिमाक संग चिन्हैत छलै
लोक मुखौटेक नकली हँसीकें असली हँसी बुझैत छलै
मुखौटे ओकर वास्तविकता बनि गेल लै
ओकर अस्तित्व बनि गेल छलै।
ओ घबड़ा गेल।
अपन परिचय पर परिचय देब’ लागल
दैत चलि गेल,
देखू, हम, हमहीं छी, एही शहरक छी
हे देखू-
बाढ़िक भसाठ जकाँ सड़क पर भासल जाइत
-शीशहीन अनियंत्रित भीड़...
चौराहा सब हिंसक जानवर सभक जंगल,
गली सबमे इजोतकें हबकैत अन्हार,
अनेक हँसीकें छिनैत, अनेक हाथ,
सबटा अपने शहर केर थिक
थिक ने ?
हे देखू -
सड़क केर नुक्कड़ सब पर रटल रटाओल
प्रलाप करैत उजरा धोती कुर्ता-बण्डी
सड़क पर, ब्लाउजक पारदर्शी फीताकें नोंचैत
पाछू पाछू चलैत अनेक घिनौन दृष्टि
हे देखू -
होस्पीटलक बरण्डा पर नकली दबाइसँ दम तोड़ैत
-असली मरीज।
एसेम्बलीक गेट पर भूखल भीड़कें खाइत गोली
वकालतखानामे कानूनक बिकाइत जिल्दहीन किताब
हम सबटा बात अपन नगर केर कहि सकैत छी,
हम एही शहरक छी, विश्वास करू
मुदा लोक चिन्हबासँ अस्वीकार क’ देलक
ओ घबड़ा गेल, डरि गेल, आ भागल घर दिस
घर जा कें ओ पुनः अपन मुखौटा पहीरि लेलक
कि तुरत सब चिन्ह’ लागलै
आ तहियासँ
ओ बिनु मुखौटाक कहियो सड़क पर नहि बहराएल

और अब यही कविता हिन्दी में पढ़ें

उस दिन एक अद्भुत घटना घटी
वह बिना मुखौटा लगाए चला आया था सड़क पर
आश्चर्य !
आश्चर्य यह कि उसे पहचान नहीं पा रहा था कोई
लोग उसे पहचानते थे सिर्फ मुखौटे के साथ
लोग उसे पहचानते थे मुखौटे की भंगिमा के साथ
लोग मुखौटे की नकली हँसी को ही समझते थे असल हँसी
मुखौटा ही बन गई थी उसकी वास्तविकता
बन गई थी उसका अस्तित्व
वह घबरा गया
देने लगा अपना परिचय
देता ही रहा अपना परिचय
देखिए, मैं, मैं ही हूँ, इसी शहर का हूँ
देखिए--
बाढ़ में बहती चीज़ों की तरह सड़क पर बहती जा रही छोड़विहीन अनियन्त्रित भीड़
चौराहा भरा हुआ है हिंसक जानवरों से
गली में है रोशनी से भरा अँधियारा
कई हँसी से होने वाली आवाज़, कई हाथ
सब कुछ है अपने इसी शहर का
है या नहीं?
देखिए
सड़क के नुक्कड़ पर रटे-रटाए
प्रलाप करती सफ़ेद धोती कुर्ता-बंडी
सड़क पर, ब्लाउज के पारदर्शी फीते को नोचते
पीछे-पीछे आती कई घिनौनी दृष्टियाँ
देखिए
अस्पताल के बरामदे पर नकली दवाई से दम तोड़ते असली मरीज
एसेम्बली के गेट पर गोली खाती भूखी भीड़
वकालतख़ाने में कानून को बिकती जिल्दहीन क़िताब
मैं कह सकता हूँ सभी बातें अपने नगर को लेकर
मैं इसी शहर का हूँ, विश्वास करें
लेकिन लोगों ने कर दिया पहचानने से इनकार
वह घबरा गया, डर गया और भागा अपने घर की ओर
घर जाकर फिर से पहन लिया उसने अपना मुखौटा
तो पहचानने लगे सब उसे तुरन्त
और उस दिन से
वह कभी भी बाहर सड़क पर नहीं आया बिना मुखौटा लगाए।

अनुवाद: विनीत उत्पल