Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद }} हरित वन कुसुमित हैं द्रुम-वृन्द; बरसत...) |
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हरित वन कुसुमित हैं द्रुम-वृन्द; | हरित वन कुसुमित हैं द्रुम-वृन्द; | ||
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बरसता हैं मलयज मकरन्द। | बरसता हैं मलयज मकरन्द। | ||
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स्नेह मय सुधा दीप हैं चन्द, | स्नेह मय सुधा दीप हैं चन्द, | ||
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खेलता शिशु होकर आनन्द। | खेलता शिशु होकर आनन्द। | ||
− | + | क्षुद्र ग्रह किन्तु सुख मूल; | |
− | क्षुद्र ग्रह किन्तु सुख मूल; उसी में मानव जाता भूल। | + | उसी में मानव जाता भूल। |
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नील नभ में शोभन विस्तार, | नील नभ में शोभन विस्तार, | ||
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प्रकृति हैं सुन्दर, परम उदार। | प्रकृति हैं सुन्दर, परम उदार। | ||
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नर हृदय, परिमित, पूरित स्वार्थस | नर हृदय, परिमित, पूरित स्वार्थस | ||
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बात जँजती कुछ नहीं यथार्थ। | बात जँजती कुछ नहीं यथार्थ। | ||
− | + | जहाँ सुख मिला न उसमें तृप्ति, | |
− | जहाँ सुख मिला न उसमें तृप्ति, स्वपन-सी आशा मिली सुषुप्ति। | + | स्वपन-सी आशा मिली सुषुप्ति। |
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प्रणय की महिमा का मधु मोद, | प्रणय की महिमा का मधु मोद, | ||
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नवल सुषमा का सरल विनोद, | नवल सुषमा का सरल विनोद, | ||
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विश्व गरिमा का जो था सार, | विश्व गरिमा का जो था सार, | ||
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हुआ वह लघिमा का व्यापार। | हुआ वह लघिमा का व्यापार। | ||
− | + | तुम्हारा मुक्तामय उपहार | |
− | तुम्हारा मुक्तामय उपहार हो रहा अश्रुकणों का हार। | + | हो रहा अश्रुकणों का हार। |
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भरा जी तुमको पाकर भी न, | भरा जी तुमको पाकर भी न, | ||
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हो गया छिछले जल का मीन। | हो गया छिछले जल का मीन। | ||
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विश्व भर का विश्वास अपार, | विश्व भर का विश्वास अपार, | ||
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सिन्धु-सा तैर गया उस पार। | सिन्धु-सा तैर गया उस पार। | ||
− | + | न हो जब मुझको ही संतोष, | |
− | न हो जब मुझको ही संतोष, तुम्हारा इसमें क्या हैं दोष? | + | तुम्हारा इसमें क्या हैं दोष? |
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00:25, 20 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
हरित वन कुसुमित हैं द्रुम-वृन्द;
बरसता हैं मलयज मकरन्द।
स्नेह मय सुधा दीप हैं चन्द,
खेलता शिशु होकर आनन्द।
क्षुद्र ग्रह किन्तु सुख मूल;
उसी में मानव जाता भूल।
नील नभ में शोभन विस्तार,
प्रकृति हैं सुन्दर, परम उदार।
नर हृदय, परिमित, पूरित स्वार्थस
बात जँजती कुछ नहीं यथार्थ।
जहाँ सुख मिला न उसमें तृप्ति,
स्वपन-सी आशा मिली सुषुप्ति।
प्रणय की महिमा का मधु मोद,
नवल सुषमा का सरल विनोद,
विश्व गरिमा का जो था सार,
हुआ वह लघिमा का व्यापार।
तुम्हारा मुक्तामय उपहार
हो रहा अश्रुकणों का हार।
भरा जी तुमको पाकर भी न,
हो गया छिछले जल का मीन।
विश्व भर का विश्वास अपार,
सिन्धु-सा तैर गया उस पार।
न हो जब मुझको ही संतोष,
तुम्हारा इसमें क्या हैं दोष?