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"पागल / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर

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है जिन्हें तोड़ना भले ही वे।
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बाल को साँप समझते हैं।
तोड़ लें आसमान के तारे।
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तनी भौंहों को तलवारें।
ये फबीले इधर उधर फैले।
+
तीर कहते हैं आँखों को।
फूल ही हैं हमें बहुत प्यारे।1।
+
भले ही वे उनको मारें।1।
  
दिन अँधेरा भरा नहीं होता।
+
नाक उड़ जाये पर वे तो।
जगमगातीं नहीं सभी रातें।
+
नाक को कीर बताएँगे।
है खुला दिल खुली हुई आँखें।
+
कान मल दे कोई पर वे।
फिर कहें क्यों न हम खुली बातें।2।
+
कान को सीप बनाएँगे।2।
  
बाँधने से हवा नहीं बँधती।
+
इस उपज की है बलिहारी।
हो सकेंगे कभी सच सपने।
+
क्यों हो कितनी ही खोटी।
दूसरे रंग लें जमा, हम तो।
+
डँस लिया उसने कब किस को।
मस्त रहते हैं रंग में अपने।3।
+
बन गयी क्यों नागिन चोटी।3।
  
सूझ कर सूझता नहीं जिन को।
+
गिरे आँसू की बूँदों में।
सूझ वाले कहीं न हों ऐसे।
+
क्यों न हों पीड़ाएँ सोती।
कब कहाँ कौन पा सका पारस।
+
उतर जाएँ पानी पर वे।
दे सके काम पास के पैसे।4।
+
बताएँगे उनको मोती।4।
  
क्यों टटोला करें अँधेरे में।
+
दाँत कितने ही हों दीखें।
सींक सा क्यों हवा लगे डोलें।
+
वे उन्हें कुन्द बनाते हैं।
क्यों बुनें जाल उलझनें डालें।
+
हँसी से गिरती है बिजली।
आँख अपनी न किसलिए खोलें।5।
+
सुधा उसमें बतलाते हैं।5।
  
जो हमें भेज दे रसातल को।
+
लाल वे उनको कहते हैं।
यों हवा में कभी नहीं मुड़ते।
+
घर नहीं जिनसे पाते बस।
चींटियों का लगा लगा के पर।
+
चाटते रहे होठ सब दिन।
हम नहीं आसमान पर उड़ते।6।
+
पर भरा होठों में है रस।6।
  
सूझता है नहीं अँधेरे में।
+
ठिकाने जिसका जी हो, वह।
जोत में ही सदा रहेंगे हम।
+
बहँकता कब दिखलाता है।
क्यों किसी आँख में करें उँगली।
+
कंठ जो कोकिल का सा है।
बात देखी सुनी कहेंगे हम।7।
+
क्यों कबूतर कहलाता है।7।
  
हों हमारे कलाम क्यों मीठे।
+
जिन्हें फल बतलाया उनसे।
वे शहद से भरे छत्ते हैं।
+
बूँद पय की कैसे टपकी।
किस तरह हम उन्हें अमोल कहें।
+
कमर को सिंह कहा, पर वह।
पास मेरे तो फूल पत्ते हैं।8।
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बता दो कब किस पर लपकी।8।
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बात जो आती है मुँह पर।
 +
किसी की बड़ है बन जाती।
 +
जाने क्यों अंधियारे में।
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ज्योति छिपती है दिखलाती।9।
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गान नीरव रह गाते हैं।
 +
मौन में सुनते हैं कल कल।
 +
बजाते हैं टूटी वीणा।
 +
कहें हम क्यों कवि हैं पागल।10।

08:34, 10 जून 2013 के समय का अवतरण

बाल को साँप समझते हैं।
तनी भौंहों को तलवारें।
तीर कहते हैं आँखों को।
भले ही वे उनको मारें।1।

नाक उड़ जाये पर वे तो।
नाक को कीर बताएँगे।
कान मल दे कोई पर वे।
कान को सीप बनाएँगे।2।

इस उपज की है बलिहारी।
क्यों न हो कितनी ही खोटी।
डँस लिया उसने कब किस को।
बन गयी क्यों नागिन चोटी।3।

गिरे आँसू की बूँदों में।
क्यों न हों पीड़ाएँ सोती।
उतर जाएँ पानी पर वे।
बताएँगे उनको मोती।4।

दाँत कितने ही हों दीखें।
वे उन्हें कुन्द बनाते हैं।
हँसी से गिरती है बिजली।
सुधा उसमें बतलाते हैं।5।

लाल वे उनको कहते हैं।
घर नहीं जिनसे पाते बस।
चाटते रहे होठ सब दिन।
पर भरा होठों में है रस।6।

ठिकाने जिसका जी हो, वह।
बहँकता कब दिखलाता है।
कंठ जो कोकिल का सा है।
क्यों कबूतर कहलाता है।7।

जिन्हें फल बतलाया उनसे।
बूँद पय की कैसे टपकी।
कमर को सिंह कहा, पर वह।
बता दो कब किस पर लपकी।8।

बात जो आती है मुँह पर।
किसी की बड़ है बन जाती।
न जाने क्यों अंधियारे में।
ज्योति छिपती है दिखलाती।9।

गान नीरव रह गाते हैं।
मौन में सुनते हैं कल कल।
बजाते हैं टूटी वीणा।
कहें हम क्यों कवि हैं पागल।10।