"ट्राम में एक याद / ज्ञानेन्द्रपति" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
(4 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 10 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=ज्ञानेन्द्रपति | |रचनाकार=ज्ञानेन्द्रपति | ||
+ | |संग्रह=शब्द लिखने के लिए ही यह कागज़ बना है / ज्ञानेन्द्रपति | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKPrasiddhRachna}} | ||
+ | {{KKAnthologyLove}} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
+ | {{KKVID|v=-dc0D9In5_w}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | चेतना पारीक कैसी हो? | ||
+ | पहले जैसी हो? | ||
+ | कुछ-कुछ ख़ुुश | ||
+ | कुछ-कुछ उदास | ||
+ | कभी देखती तारे | ||
+ | कभी देखती घास | ||
+ | चेतना पारीक, कैसी दिखती हो? | ||
+ | अब भी कविता लिखती हो? | ||
− | + | तुम्हें मेरी याद तो न होगी | |
− | + | लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो | |
− | + | चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो | |
− | + | तुम्हारी क़द-काठी की एक | |
− | + | नन्ही-सी, नेक | |
− | + | सामने आ खड़ी है | |
− | + | तुम्हारी याद उमड़ी है | |
− | + | ||
− | + | चेतना पारीक, कैसी हो? | |
− | + | पहले जैसी हो? | |
− | + | आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग? | |
− | + | नाटक में अब भी लेती हो भाग? | |
− | + | छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर? | |
− | + | मुझ-से घुमन्तूू कवि से होती है टक्कर? | |
− | + | अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र? | |
+ | अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र? | ||
+ | अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो? | ||
+ | अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो? | ||
+ | चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो? | ||
+ | उतनी ही हरी हो? | ||
− | + | उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफ़िक जाम है | |
− | + | भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है | |
− | + | ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है | |
− | + | विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह ख़ाली है | |
− | + | एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है | |
− | + | महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है | |
− | + | विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कण्ठ कम है | |
+ | तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ााली है | ||
+ | वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है | ||
− | इस | + | फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ |
− | + | आदमियों को क़िताबों को निरखता लेखता हूँ | |
− | + | रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग | |
− | + | रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग | |
− | तुम्हारे | + | देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है |
− | + | देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है | |
− | + | चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो? | |
− | + | बोलो, बोलो, पहले जैसी हो? | |
− | + | </poem> | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ? | + | |
− | बोलो, बोलो, पहले जैसी हो ?< | + |
23:37, 3 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
चेतना पारीक कैसी हो?
पहले जैसी हो?
कुछ-कुछ ख़ुुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो?
अब भी कविता लिखती हो?
तुम्हें मेरी याद तो न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी क़द-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है
चेतना पारीक, कैसी हो?
पहले जैसी हो?
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग?
नाटक में अब भी लेती हो भाग?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर?
मुझ-से घुमन्तूू कवि से होती है टक्कर?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो?
उतनी ही हरी हो?
उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफ़िक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है
इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह ख़ाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कण्ठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ााली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को क़िताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है
चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो?