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"भीतर जागा दाता / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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मतियाया
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सागर लहराया ।
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तरंग की पंखयुक्त वीणा पर 
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पवन से भर उमंग से गाया ।
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फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती 
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किरण-अप्सराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं—
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जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती ।
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दूर धुँधला किनारा 
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झूम-झूम आया, डगमगाया किया । 
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मेरे भीतर जागा
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दाता
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बोला :
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लो, यह सागर मैंने तुम्हें दिया । 
  
मतियाया<br>
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हरियाली बिछ गई तराई पर,
सागर लहराया।<br>
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घाटी की पगडण्डी  
तरंग की पंखयुक्त वीणा पर <br>
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लजाई और ओट हुई-  
पवन से भर उमंग से गाया।<br>
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पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक गई ।
फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती <br>
+
छरहरे पेड़ की नई रंगीली फुनगी
किरण-अपसराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं-<br>
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आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गई ।
जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती।<br>
+
गेहूँ की हरी बालियों में से  
दूर धुँधला किनारा <br>
+
कभी राई की उजली, कभी सरसों की पीली फूल-ज्योत्स्ना दिप गई,  
झूम-झूम आया, डगमगाया किया। <br>
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कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गई—
मेरे भीतर जागा<br>
+
कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गई ।
दाता<br>
+
मेरे भीतर फिर जागा  
बोला :<br>
+
दाता  
लो, यह सागर मैंने तुम्हें दिया।<br><br>
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और मैंने फिर नीरव संकल्प किया :  
 
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लो, यह हरी-भरी धरती—यह सवत्सा कामधेनु—मैंने तुम्हें दी  
हरियाली बिछ गयी तराई पर, <br>
+
आकाश भी तुम्हें दिया  
घाटी की पगडण्डी<br>
+
यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें,  
लजाई और ओट हुई-<br>
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ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ,  
पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक गयी।<br>
+
ये मैंने तुम्हें दीं ।
छरहरे पेड़ की नयी रंगीली फुनगी <br>
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आँकी-बाँकी रेखा यह,
आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गयी।<br>
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मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते,  
गेहूँ की हरी बालियों में से<br>
+
यह तलैया, गलियारा यह  
कभी राई की उजली, कभी सरसों की पाली फूल-ज्योत्स्ना दिप गयी,<br>
+
सारसों के जोड़े, मौन खड़े पर तोलते—
कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गयी-<br>
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यह रूप जो केवल मैंने देखा है,
कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गयी।<br>
+
यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया,  
मेरे भीतर फिर जागा<br>
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सब तुम्हें दिया।  
दाता<br>
+
एक स्मृति से मन पूत हो आया । 
और मैंने फिर नीरव संकल्प किया :<br>
+
एक श्रद्धा से आहूत प्राणों ने गाया ।
लो, यह हरी-भरी धरती-यह सवत्सा कामधेनु-मैंने तुम्हें दी<br>
+
एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ आया ।
आकाश भी तुम्हें दिया<br>
+
मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया,
यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें,<br>
+
फिर भीतर  
ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ,<br>
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दाता खिल आया।  
ये मैंने तुम्हें दीं।<br>
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हँसा, हँस कर तुम्हें बुलाया :  
आँकी-बाँकी रेखा यह, <br>
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लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हँसी,  
मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते,<br>
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यह आहूत, स्पर्श-पूत भाव  
यह तलैया, गलियारा यह<br>
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यह मैं, यह तुम, यह खिलना,  
सरसों के जोड़े, मौन खड़े पर तोलते-<br>
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यह ज्वार, यह प्लवन,  
यह रूप जो केवल मैंने देखा है, <br>
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यह प्यार, यह अडूब उमड़ना—
यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया,<br>
+
सब तुम्हें दिया ।
सब तुम्हें दिया।<br>
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सब
एक स्मृति से मन पूत हो आया। <br>
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तुम्हें
एक श्रद्धा से आहुत प्राणों ने गाया।<br>
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दिया । 
एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ आया।<br>
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मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया, <br>
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फिर भीतर<br>
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दाता खिल आया।<br>
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हँसा, हँस कर तुम्हें बुलाया :<br>
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लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हँसी,<br>
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यह आहूत, स्पर्श-पूत भाव<br>
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यह मैं, यह तुम, यह खिलना,<br>
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यह ज्वार, यह प्लवन,<br>
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यह प्यार, यह अडूब उमड़ना-<br>
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सब तुम्हें दिया।<br>
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सब <br>
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तुम्हें <br>
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दिया।<br><br>
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21:28, 22 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

मतियाया
सागर लहराया ।
तरंग की पंखयुक्त वीणा पर
पवन से भर उमंग से गाया ।
फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती
किरण-अप्सराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं—
 
जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती ।
दूर धुँधला किनारा
झूम-झूम आया, डगमगाया किया ।
मेरे भीतर जागा
दाता
बोला :
लो, यह सागर मैंने तुम्हें दिया ।

हरियाली बिछ गई तराई पर,
घाटी की पगडण्डी
लजाई और ओट हुई-
पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक गई ।
छरहरे पेड़ की नई रंगीली फुनगी
आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गई ।
गेहूँ की हरी बालियों में से
कभी राई की उजली, कभी सरसों की पीली फूल-ज्योत्स्ना दिप गई,
कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गई—
कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गई ।
मेरे भीतर फिर जागा
दाता
और मैंने फिर नीरव संकल्प किया :
लो, यह हरी-भरी धरती—यह सवत्सा कामधेनु—मैंने तुम्हें दी
आकाश भी तुम्हें दिया
यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें,
ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ,
ये मैंने तुम्हें दीं ।
आँकी-बाँकी रेखा यह,
मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते,
यह तलैया, गलियारा यह
सारसों के जोड़े, मौन खड़े पर तोलते—
यह रूप जो केवल मैंने देखा है,
यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया,
सब तुम्हें दिया।
एक स्मृति से मन पूत हो आया ।
एक श्रद्धा से आहूत प्राणों ने गाया ।
एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ आया ।
मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया,
फिर भीतर
दाता खिल आया।
हँसा, हँस कर तुम्हें बुलाया :
लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हँसी,
यह आहूत, स्पर्श-पूत भाव
यह मैं, यह तुम, यह खिलना,
यह ज्वार, यह प्लवन,
यह प्यार, यह अडूब उमड़ना—
सब तुम्हें दिया ।
सब
तुम्हें
दिया ।