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"शब्द और सत्य / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था
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यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है :
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दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।
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प्रश्न यही रहता है :
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दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं
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मैं कब, कैसे, उन के अनदेखे
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उस में सेंध लगा दूँ
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या भर कर विस्फोटक
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उसे उड़ा दूँ। 
  
यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था<br>
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कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं, करें,
यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है :<br>
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प्रयोजन मेरा बस इतना है :  
दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।<br>
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ये दोनों जो  
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सदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,
दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं<br>
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कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में  
मैं कब, कैसे, उन के अनदेखे<br>
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इन्हें मिला दूँ—
उस में सेंध लगा दूँ<br>
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दोनों जो हैं बन्धु, सखा, चिर सहचर मेरे।
या भर कर विस्फोटक<br>
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उसे उड़ा दूँ।<br><br>
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कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं, करें,<br>
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'''मोती बाग, नयी दिल्ली, 15 जून, 1957'''
प्रयोजन मेरा बस इतना है :<br>
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ये दोनों जो<br>
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सदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,<br>
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कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में<br>
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इन्हें मिला दूँ—<br>
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दोनों जो हैं बन्धु, सखा, चिर सहचर मेरे।<br>
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10:45, 9 अगस्त 2012 के समय का अवतरण

यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था
यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है :
दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।
प्रश्न यही रहता है :
दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं
मैं कब, कैसे, उन के अनदेखे
उस में सेंध लगा दूँ
या भर कर विस्फोटक
उसे उड़ा दूँ।

कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं, करें,
प्रयोजन मेरा बस इतना है :
ये दोनों जो
सदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,
कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में
इन्हें मिला दूँ—
दोनों जो हैं बन्धु, सखा, चिर सहचर मेरे।

मोती बाग, नयी दिल्ली, 15 जून, 1957