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− | + | तू इन्हें पाथेय बिन, चिर | |
− | + | प्यास के मरु में न खो, चल ! | |
− | + | धूम में अब बोलना क्या, | |
− | + | क्षार में अब तोलना क्या ! | |
− | + | प्रात हँस-रोकर गिनेगा, | |
− | + | स्वर्ण कितने हो चुके पल ! | |
− | + | दीप रे तू गल अकम्पित, | |
− | धूम में अब बोलना क्या, | + | |
− | क्षार में अब तोलना क्या ! | + | |
− | प्रात हँस-रोकर गिनेगा, | + | |
− | स्वर्ण कितने हो चुके पल ! | + | |
− | दीप रे तू गल अकम्पित, | + | |
चल अचंचल ! | चल अचंचल ! | ||
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18:20, 13 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
दीप मेरे जल अकम्पित,
धुल अचंचल !
सिन्धु का उच्छ्वास घन है,
तड़ित् तम का विकल मन है,
भीति क्या नभ है व्यथा का
आँसुओं से सिक्त अंचल !
स्वर-प्रकम्पित कर दिशाएँ,
मीड़ सब भू की शिराएँ,
गा रहे आँधी-प्रलय
तेरे लिए ही आज मंगल।
मोह क्या निशि के वरों का,
शलभ के झुलसे परों का,
साथ अक्षय ज्वाल का
तू ले चला अनमोल सम्बल !
पथ न भूले, एक पग भी,
घर न खोये, लघु विहग भी,
स्निग्ध लौ की तूलिका से
आँक सब की छाँह उज्ज्वल !
हो लिये सब साथ अपने,
मृदुल आहटहीन सपने,
तू इन्हें पाथेय बिन, चिर
प्यास के मरु में न खो, चल !
धूम में अब बोलना क्या,
क्षार में अब तोलना क्या !
प्रात हँस-रोकर गिनेगा,
स्वर्ण कितने हो चुके पल !
दीप रे तू गल अकम्पित,
चल अचंचल !