भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सूरज की प्रतीक्षा / गुलाब सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब सिंह |संग्रह=बाँस-वन और बाँ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
छो ("सूरज की प्रतीक्षा / गुलाब सिंह" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (बेमियादी) [move=sysop] (बेमियादी))) |
(कोई अंतर नहीं)
|
17:38, 7 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
सुलगते संदर्भ जुड़ते गए साँसों से
आग दीखी तो चिनारों में पलाशों में
पेड़ की परछाइयाँ
होती रहीं छोटी-बड़ी,
पढ़ न पाए लोग लेकिन
धूप की बारह खड़ी,
रोशनी गायब, अँधेरा है, तो मुँह खोले
शब्द की लौ चमक भर जाती हताशों में।
फूल में थी आग
या फिर आग जैसे फूल,
अब न मौसम रह गया
इस ख़्याल के अनुकूल,
जंगलों में भी बसी हैं बस्तियाँ
किसी सूरज की प्रतीक्षा है कुहासों में।
साँझ की स्याही
सुबह कलमें डुबोई
दिन के सफहों पर
बहुत दिन ज़िन्दगी रोई
हाथ माथे की लकीरों से घिरी जो सिसकियाँ
कब सुनी जातीं समय के अट्ठहासों में!