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"कसौटी / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

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देखना है अगर निकम्मापन।
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तो हमें आँख खोल कर देखो।
 
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हैं हमीं टालटूल के पुतले।
 
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जी हमारा टटोल कर देखो।
 
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टाट वै+से नहीं उलट जाता।
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टाट कैसे नहीं उलट जाता।
 
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जब बुरी चाट के बने चेरे।
 
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दिन पड़े खाट पर बिताते हैं।
 
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काहिली बाँट में पड़ी मेरे।
 
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कायरों का है वहाँ पर जमघटा।
 
कायरों का है वहाँ पर जमघटा।
 
 
था जहाँ पर बीर का जमता परा।
 
था जहाँ पर बीर का जमता परा।
 
 
सूर हम में अब उपजते ही नहीं।
 
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सूरपन है सूर लोगों में भरा।
 
सूरपन है सूर लोगों में भरा।
  
 
जाति आँखों की बड़ी अकसीर को।
 
जाति आँखों की बड़ी अकसीर को।
 
 
हैं गया बीता समझते राख से।
 
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देखते हम आँख भर कर क्या उसे।
 
देखते हम आँख भर कर क्या उसे।
 
 
देख सकते हैं न फूटी आँख से।
 
देख सकते हैं न फूटी आँख से।
  
 
क्यों बला में न बोलियाँ पड़तीं।
 
क्यों बला में न बोलियाँ पड़तीं।
 
 
जब बने जान बूझ कर तुतले।
 
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फूट पड़ती न वहाँ बिपद कैसे।
फूट पड़ती न वाँ बिपद वै+से।
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हैं जहाँ बैर फूट के पुतले।
 
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तब बला में न किस तरह फँसते।
 
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जब बला टाल ही नहीं पाते।
 
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हो सकेगा उबार तब कैसे।
हो सकेगा उबार तब वै+से।
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जब रहे बार बार उकताते।
 
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बेहतरी किस तरह हिली रहती।
 
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जब रहे काहिली दिखाते हम।
 
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भूल कैसे न तब भला होती।
भूल वै+से न तब भला होती।
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जब रहे भूल भूल जाते हम।
 
जब रहे भूल भूल जाते हम।
  
 
किस तरह काम हो सके कोई।
 
किस तरह काम हो सके कोई।
 
 
जब कि हैं काम कर नहीं पाते।
 
जब कि हैं काम कर नहीं पाते।
 
 
गुत्थियाँ किस तरह सुलझ सकतीं।
 
गुत्थियाँ किस तरह सुलझ सकतीं।
 
 
जब रहे हम उलझ उलझ जाते।
 
जब रहे हम उलझ उलझ जाते।
  
 
हैं अगर देखभाल कर सकते।
 
हैं अगर देखभाल कर सकते।
 
 
क्यों नहीं देखभाल की जाती।
 
क्यों नहीं देखभाल की जाती।
 
 
तब भला किस तरह भला होगा।
 
तब भला किस तरह भला होगा।
 
 
जब भली बात ही नहीं भाती।
 
जब भली बात ही नहीं भाती।
  
 
ढंग मन मार बैठ रहने का।
 
ढंग मन मार बैठ रहने का।
 
 
है गया रोम रोम में रम सा।
 
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छूट पाईं लतें न आलस की।
 
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है भला कौन आलसी हम सा।
 
है भला कौन आलसी हम सा।
 
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18:32, 23 मार्च 2014 के समय का अवतरण

देखना है अगर निकम्मापन।
तो हमें आँख खोल कर देखो।
हैं हमीं टालटूल के पुतले।
जी हमारा टटोल कर देखो।

टाट कैसे नहीं उलट जाता।
जब बुरी चाट के बने चेरे।
दिन पड़े खाट पर बिताते हैं।
काहिली बाँट में पड़ी मेरे।

कायरों का है वहाँ पर जमघटा।
था जहाँ पर बीर का जमता परा।
सूर हम में अब उपजते ही नहीं।
सूरपन है सूर लोगों में भरा।

जाति आँखों की बड़ी अकसीर को।
हैं गया बीता समझते राख से।
देखते हम आँख भर कर क्या उसे।
देख सकते हैं न फूटी आँख से।

क्यों बला में न बोलियाँ पड़तीं।
जब बने जान बूझ कर तुतले।
फूट पड़ती न वहाँ बिपद कैसे।
हैं जहाँ बैर फूट के पुतले।

तब बला में न किस तरह फँसते।
जब बला टाल ही नहीं पाते।
हो सकेगा उबार तब कैसे।
जब रहे बार बार उकताते।

बेहतरी किस तरह हिली रहती।
जब रहे काहिली दिखाते हम।
भूल कैसे न तब भला होती।
जब रहे भूल भूल जाते हम।

किस तरह काम हो सके कोई।
जब कि हैं काम कर नहीं पाते।
गुत्थियाँ किस तरह सुलझ सकतीं।
जब रहे हम उलझ उलझ जाते।

हैं अगर देखभाल कर सकते।
क्यों नहीं देखभाल की जाती।
तब भला किस तरह भला होगा।
जब भली बात ही नहीं भाती।

ढंग मन मार बैठ रहने का।
है गया रोम रोम में रम सा।
छूट पाईं लतें न आलस की।
है भला कौन आलसी हम सा।