"ईसवी पंजा / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर
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− | + | आँख की पट्टी नहीं तब भी खुली। | |
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बिछ रहे हैं जाल अब भी नित नये। | बिछ रहे हैं जाल अब भी नित नये। | ||
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क्या कहें ईसाइयों की चाल को। | क्या कहें ईसाइयों की चाल को। | ||
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लाल पंजे से निकल लाखों गये। | लाल पंजे से निकल लाखों गये। | ||
तब सुनायें जली कटी तो क्या। | तब सुनायें जली कटी तो क्या। | ||
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जब पड़े हैं कड़े शिकंजे में। | जब पड़े हैं कड़े शिकंजे में। | ||
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आग ए लोग जब लगा घर में। | आग ए लोग जब लगा घर में। | ||
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आ गए हैं मसीह - पंजे में। | आ गए हैं मसीह - पंजे में। | ||
आज हम जिन के घटाये हैं घटे। | आज हम जिन के घटाये हैं घटे। | ||
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बढ़ गई जिन के बढ़ाये बेकसी। | बढ़ गई जिन के बढ़ाये बेकसी। | ||
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बात यह अब भी बसी जी में कहाँ। | बात यह अब भी बसी जी में कहाँ। | ||
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जाति पंजे में उन्हीं के है फँसी। | जाति पंजे में उन्हीं के है फँसी। | ||
जो हमारे रत्न ही हैं लूटते। | जो हमारे रत्न ही हैं लूटते। | ||
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जो कि हैं ढलका रहे घी का घड़ा। | जो कि हैं ढलका रहे घी का घड़ा। | ||
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ठेस जी को लग सकी यह सोच कब। | ठेस जी को लग सकी यह सोच कब। | ||
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देस पंजे में उन्हीं के है पड़ा। | देस पंजे में उन्हीं के है पड़ा। | ||
है कलेजा नुच रहा बेचैन हूँ। | है कलेजा नुच रहा बेचैन हूँ। | ||
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हो रहे हैं रोंगटे फिर फिर खड़े। | हो रहे हैं रोंगटे फिर फिर खड़े। | ||
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हम निकालें तो निकालें किस तरह। | हम निकालें तो निकालें किस तरह। | ||
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बेतरह ईसाइयत पंजे गड़े। | बेतरह ईसाइयत पंजे गड़े। | ||
शेर जैसे क्यों न ईसाई बनें। | शेर जैसे क्यों न ईसाई बनें। | ||
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हिन्दियों से मेमने क्या हैं कहीं। | हिन्दियों से मेमने क्या हैं कहीं। | ||
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पा सदी यह बीसवीं इस हिन्द में। | पा सदी यह बीसवीं इस हिन्द में। | ||
− | + | फ़ैलता क्यों ईसवी पंजा नहीं। | |
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डाल कर ईसाइयत के जाल में। | डाल कर ईसाइयत के जाल में। | ||
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तब भला भौंहें चढ़ाते क्यों न वे। | तब भला भौंहें चढ़ाते क्यों न वे। | ||
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जी रहा ईसाइयों का जब बढ़ा। | जी रहा ईसाइयों का जब बढ़ा। | ||
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तब भला पंजा बढ़ाते क्यों न वे। | तब भला पंजा बढ़ाते क्यों न वे। | ||
घाव पर हैं घाव गहरे कर रहे। | घाव पर हैं घाव गहरे कर रहे। | ||
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चुभ रहे हैं वे बहुत बेढब फँसे। | चुभ रहे हैं वे बहुत बेढब फँसे। | ||
− | |||
दुख रहे हैं और दुख हैं दे रहे। | दुख रहे हैं और दुख हैं दे रहे। | ||
− | + | बेतरह हैं ईसवी पंजे धँसे। | |
− | बेतरह हैं ईसवी पंजे | + | |
हो गये हैं शेर वे, तो हर तरह। | हो गये हैं शेर वे, तो हर तरह। | ||
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क्यों न देवेंगे हमें बेकार कर। | क्यों न देवेंगे हमें बेकार कर। | ||
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क्या मसीहाई मसीही करेंगे। | क्या मसीहाई मसीही करेंगे। | ||
− | |||
मार देंगे और पंजे मार कर। | मार देंगे और पंजे मार कर। | ||
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18:48, 23 मार्च 2014 के समय का अवतरण
आँख की पट्टी नहीं तब भी खुली।
बिछ रहे हैं जाल अब भी नित नये।
क्या कहें ईसाइयों की चाल को।
लाल पंजे से निकल लाखों गये।
तब सुनायें जली कटी तो क्या।
जब पड़े हैं कड़े शिकंजे में।
आग ए लोग जब लगा घर में।
आ गए हैं मसीह - पंजे में।
आज हम जिन के घटाये हैं घटे।
बढ़ गई जिन के बढ़ाये बेकसी।
बात यह अब भी बसी जी में कहाँ।
जाति पंजे में उन्हीं के है फँसी।
जो हमारे रत्न ही हैं लूटते।
जो कि हैं ढलका रहे घी का घड़ा।
ठेस जी को लग सकी यह सोच कब।
देस पंजे में उन्हीं के है पड़ा।
है कलेजा नुच रहा बेचैन हूँ।
हो रहे हैं रोंगटे फिर फिर खड़े।
हम निकालें तो निकालें किस तरह।
बेतरह ईसाइयत पंजे गड़े।
शेर जैसे क्यों न ईसाई बनें।
हिन्दियों से मेमने क्या हैं कहीं।
पा सदी यह बीसवीं इस हिन्द में।
फ़ैलता क्यों ईसवी पंजा नहीं।
डाल कर ईसाइयत के जाल में।
तब भला भौंहें चढ़ाते क्यों न वे।
जी रहा ईसाइयों का जब बढ़ा।
तब भला पंजा बढ़ाते क्यों न वे।
घाव पर हैं घाव गहरे कर रहे।
चुभ रहे हैं वे बहुत बेढब फँसे।
दुख रहे हैं और दुख हैं दे रहे।
बेतरह हैं ईसवी पंजे धँसे।
हो गये हैं शेर वे, तो हर तरह।
क्यों न देवेंगे हमें बेकार कर।
क्या मसीहाई मसीही करेंगे।
मार देंगे और पंजे मार कर।