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"रूस की यह कविता / अनातोली परपरा" के अवतरणों में अंतर

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रचनाकाल : 1989
 
रचनाकाल : 1989
 
 
खून-खराबा उर्फ़ रक्त-पात
 
 
खून
 
'उन वर्षों' का जवान गर्म खून
 
 
पतला हो गया अब
 
मंजौठे के पानी
 
और अभी तक जीवित बूढों की
 
घ्रृणाओं की कृपा से
 
 
एक बार खून बहा था
 
स्वाधीनता सामाजिक समानता स्वतन्त्रता के लिए
 
ईश्वर स्वाभिमान और मातृभूमि के लिए
 
वही खून अब खाली बहाया जा रहा है
 
दो सौ संगठनों की आपसी कटाजूझ में
 
प्रशस्तियों, पुरस्कारों, पदकों और कैश की खातिर
 
 
आक्रामक बिगडैल चेहरों वाले बूढे
 
जिनकी चौकोर टोपियों के चार कोने
 
जैसे चार सींग हों
 
और उनकी बेडौल ढीली-ढाली पैन्टें
 
एक दूसरे को काटते-मारते हुए
 
आँख के बदले आँख
 
दांत के बदले दांत
 
 
जब मैं सुनता हूँ
 
मेरे जुझारू कामरेड्स
 
कैसे सलाम बजाते फिरते है मूर्खों को
 
और संघर्ष के दिनों की तरह
 
तूअर और अरहर के सूप का कटोरा आपस में बांटने की जगह
 
चढाते है गिलास पर गिलास
 
सुनते है संगीत (और पाद)
 
एक दूसरे पर गुर्राते
 
एक दूसरे पर थूकते
 
 
जब इस नरक की थुक्का-फजीहत के बारे में
 
मैं सुनता हूँ
 
मेरा अपना खून भी खौलता है।
 
 
 
 
 
 
'''एक असफल महत्वाकांक्षा'''
 
 
मैं एक गैंडा पैदा हुआ
 
मोटी खाल और अपनी नाक पर सींग उगाए
 
 
मैं तितली होना चाहता था
 
लेकिन मुझे बताया गया
 
मुझे गैंडा ही रहना पड़ेगा
 
 
तब फिर मैंने
 
कोई गाने वाला पक्षी या सारस या फिर चमरढेंक होना चाहा
 
लेकिन मुझे बताया गया यह संभव नहीं हैं
 
 
मैंने पूछा - क्यों
 
तो जवाब था
 
क्योंकि तुम गैंडा हो
 
 
मैं बन्दर होना चाहता था
 
यहाँ तक कि तोता तक
 
लेकिन मुझसे कहा गया - 'नहीं'
 
 
मैंने स्वप्न देखा कि मेरी
 
कोमल हल्की गुलाबी त्वचा है
 
और क्लेओपेट्रा जैसी नन्हीं -सी नाक
 
 
लेकिन मुझे याद दिलाया गया
 
कि असल में मेरी खासी मोटी खाल है
 
और नाक पर उगी सींग ही मेरी असली पहचान है
 
 
तुम थे, तुम हो, और तुम रहोगे एक गैंडा
 
जब तक तुम मर नहीं जाते । ।
 
 
 
'''भू-स्खलन'''
 
 
हम भू-स्खलन के शिकार हैं
 
चट्टानों पत्थरों गिटटयों ढेलों के
 
 
आप कह सकते हैं कि कवियों ने
 
पत्थर फेंक-फेंक कर कविता को मार डाला है
 
शब्दों के
 
 
सिर्फ हकलाता हुआ
 
बेचारा देमोस्थीनीज्ञ ही
 
ढेलों का सही इस्तेमाल कर पाया
 
उन्हें अपने मुँह में भर कर रूपांतरित करता हुआ
 
तब तक जब तक वह लहूलुहान नहीं हो गया
 
 
आख़िर वह दुनिया का एक धुरंधर वक्ता
 
एक नामी लफ्फाज़ बना
 
 
पुनश्च :
 
अपनी यात्रा के आरंभ में
 
मैं भी पत्थर से टकराया था
 
 
 
'''काली पृष्ठभूमि में सुनहले विचार'''
 
 
जब से जागा हूँ
 
मुझे काले-काले विचार आ रहे है
 
 
काले विचार ?
 
उनके रुप और विषय-वस्तु के वर्णन की
 
एक संभव कोशिश करता हूँ
 
 
आपको लगता क्यों है कि वे काले हैं ?
 
 
हो सकता है वे चौकोर हों
 
या लाल
 
या फिर सुनहले
 
 
बस, ये हुई न बात !
 
 
सुनहले विचार
 
 
एक थकी हुई भाषा के मृत सागर में
 
तिरते हुए सुनहले वचनामृत
 
 
मसलन एक वो गोगोल वाला -
 
"कोई उतना ढाढस नहीं बंधाता , जितना इतिहास "
 
या -
 
"हास्य हंसाने की चीज़ नहीं है "
 
 
और एक वो दूसरा वाला विचार भी
 
जिस पर युवाओं को विचार करना चाहिए
 
और उन्हें भी जो अपनी उम्र के 'सबसे नाजुक दौर' में हैं
 
 
"बूढों के बगैर यह संसार बहुत
 
दरिद्र संसार होगा"
 
 
पुनश्च :
 
सड़क पर टैक्सी में तुम्हें कोई सीट देने वाला नहीं होगा
 
और फिर ऐसे जीवन के क्या मानी
 
जिसमे नेक कर्म न हों !!
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
तादयुस्ज़ रोज़विच की नयी कवितायें
 
१९२१ मे पोलैंड मे जन्मे तादयुस्ज रोज़विच यूरोप के महान कवियों मे से हैं। उनकी गिनती शिम्बोर्स्का, चेस्लाव मिलोस्ज़ और जिबिग्न्यु हर्बर्ट के साथ की जाती है। कविता और नाटक दोनो विधाओं मे उन्होने पोलिश साहित्य मे ऐतिहासिक फेरबदल किया है। लोकप्रियतावाद और सत्ताकेंद्रित राजनीति, दोनो के दबावों से अछूते रोज़विच ने रचनाकार की आतंरिक लोकतांत्रिक स्वतन्त्रता और उसकी नैतिक-मानवीय चेतना को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। सत्ताकेंद्रित राजनीति मे मौजूद किसी भी तरह की हिंसा को उन्होने कभी भी स्वीकृति नहीं दी। दूसरे विश्वयुद्ध के परिणामों को वे कभी सह नहीं पाए। नाजीवाद ने जब आश्वित्ज़ मे बर्बर जन-संहार किया तब सारी दुनिया मे यह प्रश्न पूछा जाने लगा था कि क्या अब भी कविता लिखी जा सकती हैं? पोलिश कविता के नए रूप के आविष्कार के साथ रोज़विच ने कविता को संभव बनाया। उनके भाई की हत्या भी गेस्टापो ने कर दी थी। उनके पास अद्भुत काव्यात्मक ईमानदारी है। आज जब हिन्दी मे कहानी और कविता दोनों मे गतिरोध और वागाडम्बर का प्रत्यक्ष संकट है, रोज़विच की कविताओं की साधारणता और विलक्षण सरलता देखने लायक है। ये कवितायें उनके बिल्कुल नए संग्रह "न्यू पोएम्स' (२००७) से ली गयी हैं।
 
 
 
 
'''मैं क्यों लिखता हूँ'''
 
 
कभी-कभी 'जीवन' उसे छिपाता है
 
जो जीवन से ज़्यादा बड़ा है
 
 
कभी-कभी पहाड़ उस सबको छुपाते हैं
 
जो पहाडों के पार है
 
इसीलिए पहाडों को खिसकाया जाना चाहिए
 
लेकिन पहाडों को खिसकाने लायक
 
न तो मेरे पास तकनीकी साधन हैं
 
न ताकत
 
न भरोसा
 
इसलिए मैं जानता हूँ कि आप उन्हें इसी जगह देखते रहेंगे
 
 
और यही वजह है कि
 
मैं लिखता हूँ ।
 
 
सफ़ेद
 
सफ़ेद न तो उदास है
 
न प्रसन्न
 
बस सफ़ेद है
 
 
मैं लगातार कहता रहता हूँ
 
यह सफ़ेद है
 
 
लेकिन सफ़ेद सुनता नहीं
 
वह अंधा है
 
और बहरा है
 
 
वह बिल्कुल मुकम्मल है
 
 
धीरे-धीरे
 
वह और सफ़ेद होता जाता है ।
 
 
शब्द
 
 
शब्दों का इस्तेमाल किया जा चुका है
 
चुइंगम की तरह उन्हें चबाया जा चुका है
 
सुन्दर जवान होठों द्वारा
 
सफ़ेद फुग्गों बुल्लों में बदला जा चुका है
 
 
राजनीतिकों द्वारा घिसे-रगड़े गए
 
उनका इस्तेमाल दांत चमकाने और मुँह की सफाई के लिए
 
कुल्ले-गरारे में किया गया
 
 
मेरे बचपन के दिनों में
 
शब्दों को मरहम की तरह
 
घावों पर लगाया जा सकता था
 
 
शब्द दिए जा सकते थे उसे
 
जिसे तुम प्यार करते थे
 
 
घिसे- बुझे
 
अखबार मे लिपटे
 
शब्द अभी भी संक्रामक हैं ... अभी भी उनसे भाप उठती है
 
अभी तक उनमे गंध है
 
वे अभी भी चोट पहुँचाते हैं
 
 
माथे के भीतर छुपे हुए
 
छुपे हुए हृदय के भीतर
 
छुपे हुए सुन्दर जवान लड़कियों के कपडों के अन्दर
 
पवित्र पुस्तकों में छुपे हुए
 
वे अचानक फूट पड़ते हैं
 
और मार डालते हैं ।
 
 
(बिल जॉन्सन के अंग्रेज़ी अनुवाद के आधार पर )
 

18:16, 24 जून 2009 के समय का अवतरण

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»  रूस की यह कविता


रूस की यह कविता

कितनी सुन्दर

कितनी अद्भुत्त

जैसे सघन फसल में विहँसता खेत कोई

खिले जिसमें ख़ूबसूरत फूल

गूँज रहा नाद स्वर

झींगुर का संगीत कितना मधुर

दमक रहे जुगनू बहुत


देखा मैंने यह क्या ?

उतर आए 'व्यंग्यकार' कविता में

तय है अब

जल्दी ही नष्ट कर देंगे वे

टिड्डी दल की तरह

भरी-पूरी विहँसती फसल यह...


रचनाकाल : 1989