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"चंपकों का प्रयाण गीत / शुभम श्री" के अवतरणों में अंतर

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धरती का जीव नहीं ऑर्डर पर आया हूँ
 
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हिन्दी पढ़ूँगा चंपक बनूँगा
 
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शुभम श्री की कविताएँ: मामूली से दिखने वाले बेहद ज़रूरी सवाल
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by समकालीन जनमतJuly 25, 202101878
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दीपशिखा
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शुभम की कविताएँ हमारे समय और समाज में मौजूद रोज़मर्रा के उन तमाम दृश्यों और ज़रूरतों की भावनात्मक अभिव्यक्ति हैं, जिन्हें आमतौर पर देखते और जानते तो सब हैं लेकिन निहायत गैरज़रूरी मानकर|
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इस मायने में शुभम की कविताएँ मुख्यधारा के समाज में मामूली या अस्तित्त्वहीन मान लिए गये लोगों और उनकी बुनियादी ज़रूरतों के वास्तविक जगह की तलाश करती कविताएँ हैं| इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है उनके कहन का तरीका जो बेहद सामान्य रूप से मामूली को गैरमामूली या हाशिये को केंद्र में लाकर खड़ा कर देता है|
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शुभम की अधिकांश कविताएँ उन अछूते विषयों को लेकर हैं जिनसे आमतौर पर हमारी हिंदी कविता में परहेज किया जाता रहा है या फिर उन्हें उपरी तौर पर ग्लोरिफाई करके दिखाया जाता रहा है| ‘मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है’ से लेकर ‘ब्लैकबोर्ड पर सवाल टंगा है’ जैसी कविताओं को इस क्रम में देखा जा सकता है| चाहे स्त्री-जीवन से जुड़ी हुई कविताएँ हों या फिर विद्यार्थी-जीवन से जुड़ी हुई दोनों में वास्तविक लेकिन अघोषित रूप में वर्जित बना दिए गये विषय ही शुभम की कविताओं के केंद में हैं| सम्भवतः इसीलिए शुभम की कविताएँ अपनी बुनावट में उबड़-खाबड़ और अनगढ़ सी लगती हैं| एक खास तरह का खुरदरापन इन कविताओं में मौजूद है जो पढ़ते हुए लगातार मन-मस्तिष्क को कुरेदता है| इन कविताओं में मौजूद व्यंग्य बेधक है|
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शुभम की कविताओं को पढ़ते हुए ‘कुमार अंबुज’ की पंक्तियाँ याद आती हैं कि “स्वीकार्य दुनिया का सत्य जानने के लिए/ स्वागत करना होगा वर्जित व्यक्ति का”| शुभम की कविताएँ इस स्वीकार्य दुनिया और उसके सभ्यतागत छद्म के भीतर झाँकने और उसका रेशा-रेशा खोलकर रख देने वाली कविताएँ हैं|
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शुभम की कविताओं में चरित्रों की मौजूदगी बहुत सशक्त है| इन कविताओं में अभिव्यक्त चरित्रों का मनोविज्ञान अपनी संपूर्णता में उभर कर आता है चाहे वह ‘मोजे में रबर’ कविता का गोलू हो या फिर बिल्लू, तिरबेदी जी, सुलेखा जी, पूजा कुमारी जैसे चरित्र हों या बारटेंडर या ड्रिलिंग इजीनियर जैसे बहुत से अनाम चरित्र|
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ये चरित्र इन कविताओं में अपने वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में आये हैं| शुभम की कविताओं के चरित्र जहाँ एक ओर मुख्यधारा के छल-छद्म को उजागर करने वाले या उसे ढोने को विवश हैं वहीं दूसरी ओर बनी-बनाई व्यवस्था में अपनी अवसरवादिता और स्वार्थपरता को सभ्यता के आवरण से ढंके रखने वालों का भी प्रतिनिधित्त्व करते हैं| चरित्रों की इतनी सशक्त उपस्थिति शुभम की कविताओं को उनकी पीढ़ी में एक अलग पहचान देती है|
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शुभम की कविताओं में विषयगत वैविध्य भी खूब है| जहाँ एक ओर समाजिक-राजनीतिक-अकादमिक व्यंग्य की कविताएँ हैं वहीं प्रतिरोध की चेतना को और अधिक मजबूत आधार देने वाली कविताएँ हैं| शुभम की कविताओं में स्त्री अपनी दिनचर्या के बेहद स्वाभाविक आवश्यकताओं और उसकी माँगों के माध्यम से अपनी सामाजिक और ऐतिहासिक जगह बनाने के लिए संघर्षरत है|
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हिंदी भाषा में स्त्री-विमर्श को आये हुए एक अरसा हो गया लेकिन अभी भी हम बेहद बुनियादी जरूरतों की माँग सार्वजनिक रूप से कर पाने में बहुत पीछे रह गये हैं| दूसरी तरह से कहें तो सुधारवादी आन्दोलन से होते हुए हमने वर्जिनिया वुल्फ से लेकर सीमोन और जर्मेन ग्रीयर तक का अनुवाद तो पढ़ और पढ़ा डाला लेकिन अपनी ही भाषा में “सर मैं टॉयलेट कहाँ जाऊं” जैसे बेहद जरूरी वाक्यों की जगह लगातार छोड़ते गये हैं|
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शुभम की कविताएँ इन रिक्त स्थानों की पूर्ति करने वाली हैं| जो हैं तो बेहद सामान्य लेकिन उतनी ही जरूरी| जब तक स्त्री अपनी स्वाभाविक और जैविक जरूरतों को सार्वजनिक रूप से बेझिझक स्वीकार नहीं करेगी तब तक किसी भी तरह के ऐतिहासिक या सामाजिक संघर्ष का कोई मायने नहीं है| असल मुद्दा है स्त्री का बतौर मनुष्य इस समाज में रहने की प्रैक्टिस| बतौर मनुष्य अपनी जगह बनाने का अभ्यास ही हमें उस ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अन्याय से लड़ने की ताकत देगा जिसमें- “मासिक-धर्म की स्तुति में/ पूर्वजों ने श्लोक नहीं बनाए/ वीर्य की प्रशस्ति की तरह”| शुभम की कविताएँ इस ऐतिहासिक अन्याय के फलस्वरूप पैदा होने वाली आत्मयंत्रणा या आत्मग्लानि से मुक्ति के संघर्ष की कविताएँ हैं|
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शुभम श्री की कविताएँ
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1.एक पुराना नाम
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तीन अक्षर के नाम से
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एक अक्षर को ऊ की मात्रा पर रख दिया
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इतना ही तो किया तुमने
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और बिताए मैंने कई हजार दिन
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तुम्हारी याद भूलने में
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2. पहली लड़की को गुलाब का फूल
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कच्चे तेल की ड्रिलिंग साइट पर
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पहली बार एक ड्रिंलिग इंजीनियर आया नहीं आई
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इंस्टालेशन मैनेजर ने वेलकम पार्टी रखी
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‘शीशे की छत’ तोड़ने वाली पहली लड़की के लिए
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जो मुसीबत की तरह उसके सिर आन पड़ी था जेंडर न्यूट्रल वर्कप्लेस के नाम पर
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सभी ड्रिलिंग-प्रोडक्शन-इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों ने
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नारंगी डांगरी का डाइमेन्शन लिया आँखों ही आँखों में
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साइट के सबसे पुराने टेक्नीशियन ने दिया गुलाब का एक फूल
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नई मैडम मुस्कुराई
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पचास जोड़ी आँखों ने स्लो मोशन में कैप्चर कर ली मुस्कान
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इंस्टालेशन मैनेजर ने बगल में विराजमान पाँच फुट के डियो डिफ्यूजर के प्रभाव में
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कविता कोट कर दी बेस्ट हिंदी कविता एंड शायरी फॉर एवरी ओकेजन वेबसाइट से
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थम्स अप और मिरिंडा, समोसे और गुलाबजामुन
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क्या एंबीयेंस था उस छोटे से कांफ्रेस रूम का आज
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और अचानक ये राजकुमारी समोसे बाइट कर के, थम्स अप सिप कर के
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बोलती है
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सर मैं टॉयलेट कहाँ जाऊँ
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क्या इसी के लिए हमने गुलाब का फूल दिया था !
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3. इस साल
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इस साल सबसे कम किताबें पढ़ीं
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इस साल सबसे कम खुश हुई
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इस साल सबसे कम बात की
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इस साल सबसे कम सीखा
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इस साल सबसे अधिक कमाया
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इस साल सबसे अधिक रुलाया
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इस साल सबसे अधिक गुस्साई
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इस साल सबसे अधिक नफरत फैलाई
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इस साल सबसे अधिक खोया
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इस साल सबसे कम पाया
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4. मास्टर गुलाब का फूल सूँघता हुआ
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रत्ती मास्टर के दो ही व्यसन
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गुलाब के फूल सूँघना
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खटमलों का संहार करना
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दियारा के सुदूर देहाती स्कूल में
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ऐसी अलबत्त सज़ा देते
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नीम के पत्ते चबाओ गलती पीछे पाँच
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इससे तो नीम की संटी से मार खाना भला
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क्या विद्यार्थी क्या हेडमास्टर
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सब त्राहिमाम!
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रास्ते चले तो किसी की खाट पर लेट गए
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किसी बेलदार को वर्ड्सवर्थ की कविता सुना दी
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जो बच्चा दिखा उसे अंग्रेजी से डरा दिया
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जो पेड़ मिला उसकी डाल लबा दी
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मन हुआ पत्नी को गाली बक दी
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एक दिन कुपित होकर कूद पड़ी कुएँ में
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बुल्लू बचाने उतरा को कहे नहीं निकलूँगी उस राक्षस का जला मुँह देखने
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उसी एक बार इस आदमी की बोली दबी
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सो रत्ती मास्टर की सारी कमाई
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गुलाब के फूलों के पीछे कुर्बान
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किस्म-किस्म के गुलाब, य बड़े-बड़े
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कहाँ-कहाँ से मंगाए हुए
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मजाल कि कोई छू ले
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स्कूल जाने से पहले तोड़ते, सिर्फ एक
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रोज एक गुलाब का फूल सूँघते हुए जाते पूरे रास्ते
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5. पूजा कुमारी का सपना
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बीयेस्सी कर ली, बीयेड कर लो
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बगल में नइहर, बगल में सौसराल
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तरकारी-भात बनाओ, खाओ, सोओ
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बीच मांग फाड़ लो
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पाव भर सिंदुर उझल लो
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भर हाथ लहठी पहन लो
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लोहिया-बर्तन मलो, घसो, चमकाओ
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भै ! ई कोय लाइफ है, बताइए तो ?
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मास्टरनी बनो, पिल-पिल करते रहो
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कौन पूछता है मास्टर को
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कोइयो दू थाप धर देता है
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हम बता रहे हैं आपसे
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एक्के ऐम है मेरा
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पहले सिपाही, फिर दरोगा
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सबका हेकड़ी टाइट कर देंगे
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ई जो बुल्लेट पर पीछा कर रहा है छौड़बा
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दौड़ा-दौड़ा के मारेंगे
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अभी तो इनके चलते चुप हैं ।
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6. बारटेंडर
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किसी ने हँस कर कहा शुक्रिया
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किसी ने गालियाँ दीं लगातार
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कुछ दिल टूटने की कहानियाँ सुना गए
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कुछ पैसा डूबने की
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कोई नस काटने लगा
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कोई हाथ पकड़ने लगा
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उसने काम पर एक दिन बिताया
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पूरी मुस्तैदी से आठ घंटे मुस्कुराते हुए
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7. दिल्ली से डरते हुए
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कनॉट प्लेस पिघल कर बह रहा सड़कों पर
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जो पथ हैं
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पथ पर पड़े अमलतास की आग में जलती इमारतें नहीं भवन
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जंतर-मंतर की बर्फ में दबी आवाज़ नहीं शोला
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सीमापुरी से राजौरी तक कचरे की पर्वत श्रृंखलाएँ
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वसंत कुंज से ज़ोर बाग तक बहती यमुना
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यमुना की बाढ़ जैसे कोसी की बाढ़
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मर-खप गए अविभाजित भारत के बचे-खुचे बाशिंदे
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कहाँ गए लाहौर और पेशावर दरियागंज और लाजपत नगर से
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ये चाँदनी चौक में इतना सन्नाटा क्यों है
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ये शहर है या शहर की कब्र
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सौ साल तक तूफान भी नहीं गिरा पाता जिसे
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वो दरख्त एकाएक सूख कर गिरता है
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न खून गिरेगा, न चीख उठेगी
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दिल्ली में लगी ऐसी घुन
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8. चूहों का राष्ट्र निर्माण
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चूहे बेचारे काम के बोझ तले
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सूख कर हुए काँटा
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कैसी-कैसी उलझी फाइलें बीसियों साल पुरानी
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वो निबटायीं तो शराब की गैलन
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शराब पीते-पीते ऐसे बेदम
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कई तो चूहेदानी तक में हुए शहीद
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ऐसा कोई काम नहीं जो चूहे नहीं कर सकते
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चूहे नहीं कर सकते ऐसा कोई काम नहीं
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चूहों ने ही चूहे मारने के टेण्डर को ठिकाने लगाया
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रातोंरात एक बना हुआ पुल ढहाया
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परिवहन विभाग के अहाते में बसे कुतर डालीं
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बाकी बवाल नगरपालिका में काटा
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जिसकी नाव फंसी मझधार
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सबका बेड़ा पार लगाया
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चूहों का बस एक ही लक्ष्य
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काम काम काम काम
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फिर भी इन कर्मठ वीरों का यह अपमान!
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देख रहा है हिन्दुस्तान
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हाय हिन्दुस्तान !
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9.बहते नाले में सूर्यास्त
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बरसात की शाम
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स्याह पानी पर स्याह गोला हिल रहा है
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बेचन मेहतर के कंधे पर पसीने की बूँदे हैं
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बूंदों में सूरज ढल रहा है
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10. आम के पेड़ का बयान
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तुमने डाल झुकाई ?
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नहीं
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रस्सी लटकाई ?
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नहीं
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फंदा कसा ?
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नहीं
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302 लगा दें ?
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नहीं
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कौन जात हो ?
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मालदह
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कैसे सैकड़ा कमाते हो ?
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बाजार में पूछिए
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रेट बोलो ?
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नहीं मालूम
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काट दें ?
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काट दीजिए
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चलो बीस परसेंट लाओ
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तुम अमरूद का पेड़ हो
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11. चापाकल पर बर्तन धोते हुए
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सुबह चार बजे धोकर बड़ा वाला कुकर
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दो कड़ाही, सात छोटे-बड़े तसले, जले हुए दूध की देग
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फफूंद लगी मलाई का कटोरा
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लोहे का पुश्तैनी तवा
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बिल्लू की माँ ने रख छोड़े केवल फैंसी बर्तन
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चम्मच, कटोरी, थाली, गिलास, कप, प्लेट
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नई बहू सिप्पू चापाकल पर आई
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एक पूरा विमबार
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प्लास्टिक का नया पफ
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पानी के पखारे हुए से बर्तन
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कल ही दुरागमन कर आई सिप्पू के मन में
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खचड़ी बुढ़िया को एक साड़ी देने की हूक उठी
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12. मालभोग केला
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देखते ही पहचान गए
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एकदम असली
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हाजीपुर में गाड़ी तो और मिलेगी
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इसको एक नजर देख तो लें
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वही गंध
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जो उन्नीस सौ पचहत्तर में गुम हो गई थी
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उसी पेड़ के नीचे हाथ से अखबार लिखते थे दादा
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पत्ते से स्याही पोंछते थे
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बाद में इंद्रा गान्धी भी मर गई
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गाछ भी खतम हो गया
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ठेलेवाले ने तर्जनी घुमाई
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सिंगापुरी ले लीजिए बीस रुपइया दर्जन
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उ डेढ़ सौ पड़ जाएगा
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दुत्कारे जाने की आदत रही
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चेहरा और लिबास जिसमें मैं था
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इस ममता ने मन पानी कर दिया
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बस इतना ही कह पाया –
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मेरे घर में फलता था
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चालीस बरस पहले
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तुम पैदा नहीं हुआ होगी तभी
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जहाँ मालभोग का घौद पकता था
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कोठरी गम-गम करती थी
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(कवयित्री शुभम श्री बिहार के गया जिले में 24 अप्रैल 1991 को जन्म । स्कूली पढ़ाई बिहार के अलग-अलग शहरों से करने के बाद लेडी श्रीराम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया । उसके बाद जेएनयू  के भारतीय भाषा केंद्र से एम.ए. और एम.फिल किया । कुछ  समय बिहार के भागलपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाया । फिलहाल ओएनजीसी लिमिटेड में काम कर रही हैं ।
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सम्पर्क: shubhamshree91@gmail.com
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टिप्पणीकार दीपशिखा जन्म- जौनपुर जिले के बेहड़ा गाँव में। आरम्भिक शिक्षा गाँव और आस-पास से।
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बीए और एमए- बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से।
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एमफिल और पीएचडी- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य के आदिकाल और अपभ्रंश साहित्य पर।
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कई पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-साहित्यिक लेख प्रकाशित। जन संस्कृति मंच से सम्बद्ध।  संप्रति: प्रवक्ता हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
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सम्पर्क: deepshikhabanaras@gmail.com
 
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08:53, 25 अप्रैल 2024 के समय का अवतरण

चिरकुट था चिरकुट हूँ चिरकुट रहूँगा
बोलूँ चाहे न बोलूँ
शक़्ल से दिखूँगा
चेप कहे, चाट कहे, चण्ट कहे कोई
बत्तीसी निकाले हँस-हँस सहूँगा
धरती का जीव नहीं ऑर्डर पर आया हूँ
हिन्दी पढ़ूँगा चंपक बनूँगा


शुभम श्री की कविताएँ: मामूली से दिखने वाले बेहद ज़रूरी सवाल
by समकालीन जनमतJuly 25, 202101878
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दीपशिखा
शुभम की कविताएँ हमारे समय और समाज में मौजूद रोज़मर्रा के उन तमाम दृश्यों और ज़रूरतों की भावनात्मक अभिव्यक्ति हैं, जिन्हें आमतौर पर देखते और जानते तो सब हैं लेकिन निहायत गैरज़रूरी मानकर|

इस मायने में शुभम की कविताएँ मुख्यधारा के समाज में मामूली या अस्तित्त्वहीन मान लिए गये लोगों और उनकी बुनियादी ज़रूरतों के वास्तविक जगह की तलाश करती कविताएँ हैं| इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है उनके कहन का तरीका जो बेहद सामान्य रूप से मामूली को गैरमामूली या हाशिये को केंद्र में लाकर खड़ा कर देता है|

शुभम की अधिकांश कविताएँ उन अछूते विषयों को लेकर हैं जिनसे आमतौर पर हमारी हिंदी कविता में परहेज किया जाता रहा है या फिर उन्हें उपरी तौर पर ग्लोरिफाई करके दिखाया जाता रहा है| ‘मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है’ से लेकर ‘ब्लैकबोर्ड पर सवाल टंगा है’ जैसी कविताओं को इस क्रम में देखा जा सकता है| चाहे स्त्री-जीवन से जुड़ी हुई कविताएँ हों या फिर विद्यार्थी-जीवन से जुड़ी हुई दोनों में वास्तविक लेकिन अघोषित रूप में वर्जित बना दिए गये विषय ही शुभम की कविताओं के केंद में हैं| सम्भवतः इसीलिए शुभम की कविताएँ अपनी बुनावट में उबड़-खाबड़ और अनगढ़ सी लगती हैं| एक खास तरह का खुरदरापन इन कविताओं में मौजूद है जो पढ़ते हुए लगातार मन-मस्तिष्क को कुरेदता है| इन कविताओं में मौजूद व्यंग्य बेधक है|

शुभम की कविताओं को पढ़ते हुए ‘कुमार अंबुज’ की पंक्तियाँ याद आती हैं कि “स्वीकार्य दुनिया का सत्य जानने के लिए/ स्वागत करना होगा वर्जित व्यक्ति का”| शुभम की कविताएँ इस स्वीकार्य दुनिया और उसके सभ्यतागत छद्म के भीतर झाँकने और उसका रेशा-रेशा खोलकर रख देने वाली कविताएँ हैं|

शुभम की कविताओं में चरित्रों की मौजूदगी बहुत सशक्त है| इन कविताओं में अभिव्यक्त चरित्रों का मनोविज्ञान अपनी संपूर्णता में उभर कर आता है चाहे वह ‘मोजे में रबर’ कविता का गोलू हो या फिर बिल्लू, तिरबेदी जी, सुलेखा जी, पूजा कुमारी जैसे चरित्र हों या बारटेंडर या ड्रिलिंग इजीनियर जैसे बहुत से अनाम चरित्र|

ये चरित्र इन कविताओं में अपने वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में आये हैं| शुभम की कविताओं के चरित्र जहाँ एक ओर मुख्यधारा के छल-छद्म को उजागर करने वाले या उसे ढोने को विवश हैं वहीं दूसरी ओर बनी-बनाई व्यवस्था में अपनी अवसरवादिता और स्वार्थपरता को सभ्यता के आवरण से ढंके रखने वालों का भी प्रतिनिधित्त्व करते हैं| चरित्रों की इतनी सशक्त उपस्थिति शुभम की कविताओं को उनकी पीढ़ी में एक अलग पहचान देती है|

शुभम की कविताओं में विषयगत वैविध्य भी खूब है| जहाँ एक ओर समाजिक-राजनीतिक-अकादमिक व्यंग्य की कविताएँ हैं वहीं प्रतिरोध की चेतना को और अधिक मजबूत आधार देने वाली कविताएँ हैं| शुभम की कविताओं में स्त्री अपनी दिनचर्या के बेहद स्वाभाविक आवश्यकताओं और उसकी माँगों के माध्यम से अपनी सामाजिक और ऐतिहासिक जगह बनाने के लिए संघर्षरत है|

हिंदी भाषा में स्त्री-विमर्श को आये हुए एक अरसा हो गया लेकिन अभी भी हम बेहद बुनियादी जरूरतों की माँग सार्वजनिक रूप से कर पाने में बहुत पीछे रह गये हैं| दूसरी तरह से कहें तो सुधारवादी आन्दोलन से होते हुए हमने वर्जिनिया वुल्फ से लेकर सीमोन और जर्मेन ग्रीयर तक का अनुवाद तो पढ़ और पढ़ा डाला लेकिन अपनी ही भाषा में “सर मैं टॉयलेट कहाँ जाऊं” जैसे बेहद जरूरी वाक्यों की जगह लगातार छोड़ते गये हैं|

शुभम की कविताएँ इन रिक्त स्थानों की पूर्ति करने वाली हैं| जो हैं तो बेहद सामान्य लेकिन उतनी ही जरूरी| जब तक स्त्री अपनी स्वाभाविक और जैविक जरूरतों को सार्वजनिक रूप से बेझिझक स्वीकार नहीं करेगी तब तक किसी भी तरह के ऐतिहासिक या सामाजिक संघर्ष का कोई मायने नहीं है| असल मुद्दा है स्त्री का बतौर मनुष्य इस समाज में रहने की प्रैक्टिस| बतौर मनुष्य अपनी जगह बनाने का अभ्यास ही हमें उस ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अन्याय से लड़ने की ताकत देगा जिसमें- “मासिक-धर्म की स्तुति में/ पूर्वजों ने श्लोक नहीं बनाए/ वीर्य की प्रशस्ति की तरह”| शुभम की कविताएँ इस ऐतिहासिक अन्याय के फलस्वरूप पैदा होने वाली आत्मयंत्रणा या आत्मग्लानि से मुक्ति के संघर्ष की कविताएँ हैं|

 

शुभम श्री की कविताएँ

1.एक पुराना नाम
तीन अक्षर के नाम से
एक अक्षर को ऊ की मात्रा पर रख दिया
इतना ही तो किया तुमने
और बिताए मैंने कई हजार दिन
तुम्हारी याद भूलने में

 

2. पहली लड़की को गुलाब का फूल

कच्चे तेल की ड्रिलिंग साइट पर
पहली बार एक ड्रिंलिग इंजीनियर आया नहीं आई
इंस्टालेशन मैनेजर ने वेलकम पार्टी रखी
‘शीशे की छत’ तोड़ने वाली पहली लड़की के लिए
जो मुसीबत की तरह उसके सिर आन पड़ी था जेंडर न्यूट्रल वर्कप्लेस के नाम पर
सभी ड्रिलिंग-प्रोडक्शन-इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों ने
नारंगी डांगरी का डाइमेन्शन लिया आँखों ही आँखों में
साइट के सबसे पुराने टेक्नीशियन ने दिया गुलाब का एक फूल
नई मैडम मुस्कुराई
पचास जोड़ी आँखों ने स्लो मोशन में कैप्चर कर ली मुस्कान
इंस्टालेशन मैनेजर ने बगल में विराजमान पाँच फुट के डियो डिफ्यूजर के प्रभाव में

कविता कोट कर दी बेस्ट हिंदी कविता एंड शायरी फॉर एवरी ओकेजन वेबसाइट से
थम्स अप और मिरिंडा, समोसे और गुलाबजामुन
क्या एंबीयेंस था उस छोटे से कांफ्रेस रूम का आज
और अचानक ये राजकुमारी समोसे बाइट कर के, थम्स अप सिप कर के
बोलती है
सर मैं टॉयलेट कहाँ जाऊँ
क्या इसी के लिए हमने गुलाब का फूल दिया था !

 

3. इस साल

इस साल सबसे कम किताबें पढ़ीं
इस साल सबसे कम खुश हुई
इस साल सबसे कम बात की
इस साल सबसे कम सीखा
इस साल सबसे अधिक कमाया
इस साल सबसे अधिक रुलाया
इस साल सबसे अधिक गुस्साई
इस साल सबसे अधिक नफरत फैलाई
इस साल सबसे अधिक खोया
इस साल सबसे कम पाया

 

4. मास्टर गुलाब का फूल सूँघता हुआ

रत्ती मास्टर के दो ही व्यसन
गुलाब के फूल सूँघना
खटमलों का संहार करना
दियारा के सुदूर देहाती स्कूल में
ऐसी अलबत्त सज़ा देते
नीम के पत्ते चबाओ गलती पीछे पाँच
इससे तो नीम की संटी से मार खाना भला
क्या विद्यार्थी क्या हेडमास्टर
सब त्राहिमाम!
रास्ते चले तो किसी की खाट पर लेट गए
किसी बेलदार को वर्ड्सवर्थ की कविता सुना दी
जो बच्चा दिखा उसे अंग्रेजी से डरा दिया
जो पेड़ मिला उसकी डाल लबा दी
मन हुआ पत्नी को गाली बक दी
एक दिन कुपित होकर कूद पड़ी कुएँ में
बुल्लू बचाने उतरा को कहे नहीं निकलूँगी उस राक्षस का जला मुँह देखने
उसी एक बार इस आदमी की बोली दबी
सो रत्ती मास्टर की सारी कमाई
गुलाब के फूलों के पीछे कुर्बान
किस्म-किस्म के गुलाब, य बड़े-बड़े
कहाँ-कहाँ से मंगाए हुए
मजाल कि कोई छू ले
स्कूल जाने से पहले तोड़ते, सिर्फ एक
रोज एक गुलाब का फूल सूँघते हुए जाते पूरे रास्ते

 

5. पूजा कुमारी का सपना

बीयेस्सी कर ली, बीयेड कर लो
बगल में नइहर, बगल में सौसराल
तरकारी-भात बनाओ, खाओ, सोओ
बीच मांग फाड़ लो
पाव भर सिंदुर उझल लो
भर हाथ लहठी पहन लो
लोहिया-बर्तन मलो, घसो, चमकाओ
भै ! ई कोय लाइफ है, बताइए तो ?
मास्टरनी बनो, पिल-पिल करते रहो
कौन पूछता है मास्टर को
कोइयो दू थाप धर देता है
हम बता रहे हैं आपसे
एक्के ऐम है मेरा
पहले सिपाही, फिर दरोगा
सबका हेकड़ी टाइट कर देंगे
ई जो बुल्लेट पर पीछा कर रहा है छौड़बा
दौड़ा-दौड़ा के मारेंगे
अभी तो इनके चलते चुप हैं ।

 

6. बारटेंडर

किसी ने हँस कर कहा शुक्रिया
किसी ने गालियाँ दीं लगातार
कुछ दिल टूटने की कहानियाँ सुना गए
कुछ पैसा डूबने की
कोई नस काटने लगा
कोई हाथ पकड़ने लगा
उसने काम पर एक दिन बिताया
पूरी मुस्तैदी से आठ घंटे मुस्कुराते हुए

 

7. दिल्ली से डरते हुए

कनॉट प्लेस पिघल कर बह रहा सड़कों पर
जो पथ हैं
पथ पर पड़े अमलतास की आग में जलती इमारतें नहीं भवन
जंतर-मंतर की बर्फ में दबी आवाज़ नहीं शोला
सीमापुरी से राजौरी तक कचरे की पर्वत श्रृंखलाएँ
वसंत कुंज से ज़ोर बाग तक बहती यमुना
यमुना की बाढ़ जैसे कोसी की बाढ़
मर-खप गए अविभाजित भारत के बचे-खुचे बाशिंदे
कहाँ गए लाहौर और पेशावर दरियागंज और लाजपत नगर से
ये चाँदनी चौक में इतना सन्नाटा क्यों है
ये शहर है या शहर की कब्र
सौ साल तक तूफान भी नहीं गिरा पाता जिसे
वो दरख्त एकाएक सूख कर गिरता है
न खून गिरेगा, न चीख उठेगी
दिल्ली में लगी ऐसी घुन

 

8. चूहों का राष्ट्र निर्माण

चूहे बेचारे काम के बोझ तले
सूख कर हुए काँटा
कैसी-कैसी उलझी फाइलें बीसियों साल पुरानी
वो निबटायीं तो शराब की गैलन
शराब पीते-पीते ऐसे बेदम
कई तो चूहेदानी तक में हुए शहीद
ऐसा कोई काम नहीं जो चूहे नहीं कर सकते
चूहे नहीं कर सकते ऐसा कोई काम नहीं
चूहों ने ही चूहे मारने के टेण्डर को ठिकाने लगाया
रातोंरात एक बना हुआ पुल ढहाया
परिवहन विभाग के अहाते में बसे कुतर डालीं
बाकी बवाल नगरपालिका में काटा
जिसकी नाव फंसी मझधार
सबका बेड़ा पार लगाया
चूहों का बस एक ही लक्ष्य
काम काम काम काम
फिर भी इन कर्मठ वीरों का यह अपमान!
देख रहा है हिन्दुस्तान
हाय हिन्दुस्तान !

 

9.बहते नाले में सूर्यास्त

बरसात की शाम
स्याह पानी पर स्याह गोला हिल रहा है
बेचन मेहतर के कंधे पर पसीने की बूँदे हैं
बूंदों में सूरज ढल रहा है

 

10. आम के पेड़ का बयान

तुमने डाल झुकाई ?
नहीं
रस्सी लटकाई ?
नहीं
फंदा कसा ?
नहीं
302 लगा दें ?
नहीं
कौन जात हो ?
मालदह
कैसे सैकड़ा कमाते हो ?
बाजार में पूछिए
रेट बोलो ?
नहीं मालूम
काट दें ?
काट दीजिए
चलो बीस परसेंट लाओ
तुम अमरूद का पेड़ हो

 

11. चापाकल पर बर्तन धोते हुए
सुबह चार बजे धोकर बड़ा वाला कुकर
दो कड़ाही, सात छोटे-बड़े तसले, जले हुए दूध की देग
फफूंद लगी मलाई का कटोरा
लोहे का पुश्तैनी तवा
बिल्लू की माँ ने रख छोड़े केवल फैंसी बर्तन
चम्मच, कटोरी, थाली, गिलास, कप, प्लेट
नई बहू सिप्पू चापाकल पर आई
एक पूरा विमबार
प्लास्टिक का नया पफ
पानी के पखारे हुए से बर्तन
कल ही दुरागमन कर आई सिप्पू के मन में
खचड़ी बुढ़िया को एक साड़ी देने की हूक उठी

 

12. मालभोग केला

देखते ही पहचान गए
एकदम असली
हाजीपुर में गाड़ी तो और मिलेगी
इसको एक नजर देख तो लें
वही गंध
जो उन्नीस सौ पचहत्तर में गुम हो गई थी
उसी पेड़ के नीचे हाथ से अखबार लिखते थे दादा
पत्ते से स्याही पोंछते थे
बाद में इंद्रा गान्धी भी मर गई
गाछ भी खतम हो गया
ठेलेवाले ने तर्जनी घुमाई
सिंगापुरी ले लीजिए बीस रुपइया दर्जन
उ डेढ़ सौ पड़ जाएगा
दुत्कारे जाने की आदत रही
चेहरा और लिबास जिसमें मैं था
इस ममता ने मन पानी कर दिया
बस इतना ही कह पाया –
मेरे घर में फलता था
चालीस बरस पहले
तुम पैदा नहीं हुआ होगी तभी
जहाँ मालभोग का घौद पकता था
कोठरी गम-गम करती थी

 

(कवयित्री शुभम श्री बिहार के गया जिले में 24 अप्रैल 1991 को जन्म । स्कूली पढ़ाई बिहार के अलग-अलग शहरों से करने के बाद लेडी श्रीराम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया । उसके बाद जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र से एम.ए. और एम.फिल किया । कुछ समय बिहार के भागलपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाया । फिलहाल ओएनजीसी लिमिटेड में काम कर रही हैं ।

सम्पर्क: shubhamshree91@gmail.com

 

टिप्पणीकार दीपशिखा जन्म- जौनपुर जिले के बेहड़ा गाँव में। आरम्भिक शिक्षा गाँव और आस-पास से।
बीए और एमए- बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से।
एमफिल और पीएचडी- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य के आदिकाल और अपभ्रंश साहित्य पर।
 कई पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-साहित्यिक लेख प्रकाशित। जन संस्कृति मंच से सम्बद्ध। संप्रति: प्रवक्ता हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी

सम्पर्क: deepshikhabanaras@gmail.com