"ऐसा ही होता है / आस्तीक वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर
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देख पाता । | देख पाता । | ||
14:14, 6 नवम्बर 2014 के समय का अवतरण
ऐसा ही होता है ।
समय में भागता अश्वत्थामा
भूल जाएगा कि वह क्यों भागता है,
भागना ही बच जाएगा, सब ख़त्म हो जाएगा ।
‘प्रेम‘ -- किससे किया था ?
वह कौन है जो मुझे देखती है ।
मैं भूल चुका हूँ ।
‘मृत्यु‘ -- वह शुरू हो गई थी मेरे पैदा होते ही,
ख़त्म हो पाएगी या नहीं इस घास पर पड़ी
ओस की चमक।
यह अन्धकार मेरा पहला अन्धकार
नहीं है, इसके पीछे से मेरी यादें
मुझे, भाले मार रही हैं । कुत्तों की तरह झुँड में
धावा बोलती हैं, किसी एक का भी चेहरा नहीं
देख पाता ।
हत्या सिर्फ़ मैंने ही नहीं की है।
मुझे ही क्यों दण्डित करता है यह मैं ।
किससे करवाऊँ बचाव ख़ुद से अपना ।
ऐसा ही होता है ।
‘अफसोस‘-पहले दूसरों पर होता है
फिर ख़ुद पर, फिर इस बात पर
कि यह सोचते-सोचते कितना समय बीत गया ।
मासूमियत छीन ली है भगवानों ने
जानवरों को देने के लिए ।
हमारे लिए इच्छाएँ छोड़ दी हैं ।
कुछ ऐसा करूँ जो मुझे अच्छा लगता हो,
मैं क्यों भाग रहा हूँ ?
यह मैंने खुद के लिए चुना है या दूसरे ने ।
अगला कदम क्या एक सदी पार कर रहा है
या एक क्षण या ये सारी सदियाँ ही एक क्षण थीं ।
कितना समय बीत गया ।
यह कुरूक्षेत्र ही है क्या ?
कोई सपना लगता है, या कोई भ्रम
मैं इससे क्यों नहीं भाग पाता ।
यह पाताल है या स्वर्ग ।
यह भीड़ क्यों लड़ती है,
मैं क्यों नहीं लड़ता ।
घास के ऊपर तैर रही ओस पीकर ज़िन्दा रहतीं
ये मृतकों की चीख़ें ।
क्या वास्तव में मर गये सिर्फ़ वे लोग
या हम भी चलते मुर्दे हैं ।
इस रण में ही छिपी है शान्ति
हँस रही है धूप, पसीने और रक्त
से लिप्त खड़ी रण के बीच ।
कुत्तों और गिद्धों की आँखें लाल हो गई हैं
रक्तचाप से योद्धाओं की कल्पनाएँ लाल हो गई हैं ।
इतिहास हम हैं या वेदव्यास या गणेश जो
लिखते हैं महाभारत या जीत की सम्भावना जो छिप
गई है मनुष्यों की इच्छाओं में ।
ऐसा ही होता है ।
हम क्या लड़ें, क्यों लड़ें, किससे लड़ें
कुछ भी स्मरण नहीं ।
हम सत्ता के लिए नहीं लड़े थे,
न ही ईर्ष्या से, न ही समृद्धि के लिए
हम लड़े क्यों ?
क्या वास्तव में लड़े थे ?
सम्भव है कि यह देवताओं की चाल हो,
लेकिन यह भूमि लाल है
कुरूक्षेत्र, हाय कुरूक्षेत्र जिसे छलनी किया
भयावह सेनाओं ने, असंख्य योद्धाओं ने
क्या यह तुम्हारे द्वारा रचा एक स्वप्न था ?
हमें क्यों कौशल इतना अधिक मिला
और इच्छाएँ इतनी कम ।
रात्रि में स्वप्न नहीं मिले, सूर्यास्त
पर सन्तुष्टि नहीं मिली ।
मैं थक गया हूँ, थक गया हूँ, थक गया हूँ ।
कहाँ जा रहा हूँ ? आँखें सूज गई है
नहीं सो पाता हूँ, मृत्यु भी क्षमा नहीं करती है ।
यह फूल अभी उगे ही हैं, भीष्म की
तरह पता है इन्हें भी मृत्यु का समय ।
धन्य हैं ।
अपनी इच्छाओं से बहुत पहले पल्ला
झाड़ चुका हूँ दूसरों की इच्छाओं को ढोता हूँ
कभी अर्जुन बनकर द्रोपदी की कामना करता हूँ,
कभी धृतराष्ट्र बनकर अपने पुत्रों की,
कभी अश्वत्थामा बनकर मृत्यु की,
ऐसा ही होता है ।