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प्यार / विजेन्द्र

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कैसे जानूँ कौन सगा वो कातर पुकार तुम्हारी है-बाततुम्हारी.....सिर्फ तुम्हारी फड़फड़ाती वो मेरे पास आने को आतुर है। उसी समय एक बया अपना घौंसला रचने को बेचैनदिखाई दिया -बात में चलती कैंचीटंगड़ी मार खेल खेलतेएक मछलाी पानी को काटती हुईफाँस पड़ी गर्दन में खेंची।उतरी गहराई में।प्यार की बात जब पत्थर कि मूर्तियों को नीरी दगा हैउत्सुक तर्जनी से छुआ कहते कुछ हैं तो वे बोलीं-करते दूजाबे-आवाज अगम भाषा मन मेरी तरफ़ बराबर घूमती रहीं उस भव्य स्थापत्य की झरन में छुरी दिखावें पूजाजो जितना भलमानुस दिखतासुना अपने धुँधले अतीत का रूदन। उसको उतना खुब ठगा है।ओ कवि-राम नाम ज़िं धड़कनों को अनसुना कर ष्षब्दो को काट मत बनाओ। पृभ्वी की फेरूँ मालागति से ही जग्यपैदा हुए हैंअनसूँघी ऋतुओ के नये अंकुर झड़ते अमलतास के पीले फूल तुम्हारे साथ की अरूणोदय-स्मृतियाँआज भी ताज़ा हैं-स्पर्ष, कथा, तीरथ भारीगंध.....स्याह पत्थर के मर्म से टपकती करता फिरता बारीरजत बूँदें-बारीबैठ अँधेरे तल काष उन्हे मटमैले कोलाहल में छिप कर करता रहता पीला सुन पाता देख पाता छु पाता।हर बार तुम्हारी कातर पुकार टकराती है नुकीले पत्थरों से मुझे वो आँख दिखाई दे रही हैकाली-सफ़ेद पुतली भी पुतली में चमकता कालातिल भी कौननाग चंपा की बिखरती गंध को देकरझड़ जाते हैं फूल वैसा मेरा जीवन कहाँ!रात कोल्तार-सा रिश्तासी गाढ़ी हैंबिल्कुल अकेला हूँओ कसकते दर्दतू चुप जा मत रो-कौन सा परिचयआते धन का नाता सच देख उधर काले तवे पर थके श्रमिक की अधसिकी रोटो।चट्टानों में बहुत आगे तकजाने के लिए ही मैंने सिंहावलोकन षैली अपनाई है।इस घुटते धुएँ में कैसे देख पाओगी चैत में पीपल के झरे पते नंगी होती टहनियाँउभरी पसलियों की तरह करील की फूटती पहली सुर्ख लौ जनपद की खुली आँख हैकहते कैसे-कैसे रंग हैं अमिरित है बानीजीवन के टाँग उठाकर मूत रही जिन्हंे चित्र नहीं कह पाते-अनुपम को जानने के लिए कहाँ हैतुम्हारी उपमाएँनीतिशास्त्र रूपक और षब्द जब वो होगा ग्रेनाइट पर-कुतिया कानीकालांकितरूको, रूको ये देखो चक्खोतभी मानूँगा कथन हिए काप्यार जीवन की कसौटी है।विष में पागा। 2003  
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