"निरस्त्र / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार=अज्ञेय | |रचनाकार=अज्ञेय | ||
− | |संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय | + | |संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय; सुनहरे शैवाल / अज्ञेय |
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कुहरा था, | कुहरा था, | ||
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सागर पर सन्नाटा था: | सागर पर सन्नाटा था: | ||
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पंछी चुप थे। | पंछी चुप थे। | ||
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महाराशि से कटा हुआ | महाराशि से कटा हुआ | ||
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थोड़ा-सा जल | थोड़ा-सा जल | ||
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बन्दी हो | बन्दी हो | ||
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चट्टानों के बीच एक गढ़िया में | चट्टानों के बीच एक गढ़िया में | ||
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निश्चल था— | निश्चल था— | ||
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पारदर्श। | पारदर्श। | ||
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प्रस्तर-चुम्बी | प्रस्तर-चुम्बी | ||
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बहुरंगी | बहुरंगी | ||
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उद्भिज-समूह के बीच | उद्भिज-समूह के बीच | ||
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मुझे सहसा दीखा | मुझे सहसा दीखा | ||
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केंकड़ा एक: | केंकड़ा एक: | ||
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आँखें ठण्डी | आँखें ठण्डी | ||
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निष्प्रभ | निष्प्रभ | ||
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निष्कौतूहल | निष्कौतूहल | ||
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निर्निमेष। | निर्निमेष। | ||
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जाने | जाने | ||
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मुझ में कौतुक जागा | मुझ में कौतुक जागा | ||
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या उस प्रसृत सन्नाटे में | या उस प्रसृत सन्नाटे में | ||
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अपना रहस्य यों खोल | अपना रहस्य यों खोल | ||
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आँख-भर तक लेने का साहस; | आँख-भर तक लेने का साहस; | ||
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मैंने पूछा: क्यों जी, | मैंने पूछा: क्यों जी, | ||
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यदि मैं तुम्हें बता दूँ | यदि मैं तुम्हें बता दूँ | ||
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मैं करता हूँ प्यार किसी को— | मैं करता हूँ प्यार किसी को— | ||
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तो चौंकोगे? | तो चौंकोगे? | ||
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ये ठण्डी आँखें झपकेंगी | ये ठण्डी आँखें झपकेंगी | ||
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औचक? | औचक? | ||
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उस उदासीन ने | उस उदासीन ने | ||
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सुना नहीं: | सुना नहीं: | ||
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आँखों में | आँखों में | ||
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वही बुझा सूनापन जमा रहा। | वही बुझा सूनापन जमा रहा। | ||
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ठण्डे नीले लोहू में | ठण्डे नीले लोहू में | ||
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दौड़ी नहीं | दौड़ी नहीं | ||
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सनसनी कोई। | सनसनी कोई। | ||
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पर अलक्ष्य गति से वह | पर अलक्ष्य गति से वह | ||
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कोई लीक पकड़ | कोई लीक पकड़ | ||
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धीरे-धीरे | धीरे-धीरे | ||
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पत्थर की ओट | पत्थर की ओट | ||
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किसी कोटर में | किसी कोटर में | ||
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सरक गया। | सरक गया। | ||
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यों मैं | यों मैं | ||
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अपने रहस्य के साथ | अपने रहस्य के साथ | ||
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रह गया | रह गया | ||
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सन्नाटे से घिरा | सन्नाटे से घिरा | ||
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अकेला | अकेला | ||
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अप्रस्तुत | अप्रस्तुत | ||
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अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र | अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र | ||
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निष्कवच, | निष्कवच, | ||
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वध्य। | वध्य। | ||
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14:45, 17 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण
कुहरा था,
सागर पर सन्नाटा था:
पंछी चुप थे।
महाराशि से कटा हुआ
थोड़ा-सा जल
बन्दी हो
चट्टानों के बीच एक गढ़िया में
निश्चल था—
पारदर्श।
प्रस्तर-चुम्बी
बहुरंगी
उद्भिज-समूह के बीच
मुझे सहसा दीखा
केंकड़ा एक:
आँखें ठण्डी
निष्प्रभ
निष्कौतूहल
निर्निमेष।
जाने
मुझ में कौतुक जागा
या उस प्रसृत सन्नाटे में
अपना रहस्य यों खोल
आँख-भर तक लेने का साहस;
मैंने पूछा: क्यों जी,
यदि मैं तुम्हें बता दूँ
मैं करता हूँ प्यार किसी को—
तो चौंकोगे?
ये ठण्डी आँखें झपकेंगी
औचक?
उस उदासीन ने
सुना नहीं:
आँखों में
वही बुझा सूनापन जमा रहा।
ठण्डे नीले लोहू में
दौड़ी नहीं
सनसनी कोई।
पर अलक्ष्य गति से वह
कोई लीक पकड़
धीरे-धीरे
पत्थर की ओट
किसी कोटर में
सरक गया।
यों मैं
अपने रहस्य के साथ
रह गया
सन्नाटे से घिरा
अकेला
अप्रस्तुत
अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र
निष्कवच,
वध्य।