"हनुमानबाहुक / भाग 9 / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
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− | असन-बसन -हीन बिषम-बिषाद-लीन | + | '''असन-बसन -हीन बिषम-बिषाद-लीन''' |
− | देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को। | + | '''देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को।''' |
− | तुलसी अनाथ सा सनाथ रधुनाथ कियो, | + | '''तुलसी अनाथ सा सनाथ रधुनाथ कियो,''' |
− | दियो फल सीलसिंधु आपने सुभायको॥ | + | '''दियो फल सीलसिंधु आपने सुभायको॥''' |
− | नीच यहि बीच पति पाइ भरूहाइबो, | + | '''नीच यहि बीच पति पाइ भरूहाइबो,''' |
− | बिहाइ प्रभु-भजन बचन मन कायको। | + | '''बिहाइ प्रभु-भजन बचन मन कायको।''' |
− | तातें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, | + | '''तातें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस,''' |
− | फूटि-फूटि निकसत लोन | + | '''फूटि-फूटि निकसत लोन रामरायको॥41॥''' |
− | भावार्थ - जिसे भोजन-वस्त्रसे रहित भयंकर विषादमें डूबा हुआ और दीन-दुर्बल देखकर ऐसा कौन था जो हाय-हाय नहीं करता था; ऐसे अनाथ तुलसीको दयासागर स्वामी रघुनाथजीने सनाथ करके अपने स्वभावसे उत्तम फल दिया। इस बीचमें यह नीच जन प्रतिष्ठा पाकर फूल उठा (अपनेको बड़ा समझने लगा) और तन-मन-वचनसे रामजीका भजन छोड़ दिया, इसीसे शरीरमेंसे भयंकर बरतोरके बहाने रामचन्द्रजीका नमक फूट-फूटकर निकलता दिखायी दे रहा | + | '''भावार्थ''' - जिसे भोजन-वस्त्रसे रहित भयंकर विषादमें डूबा हुआ और दीन-दुर्बल देखकर ऐसा कौन था जो हाय-हाय नहीं करता था; ऐसे अनाथ तुलसीको दयासागर स्वामी रघुनाथजीने सनाथ करके अपने स्वभावसे उत्तम फल दिया। इस बीचमें यह नीच जन प्रतिष्ठा पाकर फूल उठा (अपनेको बड़ा समझने लगा) और तन-मन-वचनसे रामजीका भजन छोड़ दिया, इसीसे शरीरमेंसे भयंकर बरतोरके बहाने रामचन्द्रजीका नमक फूट-फूटकर निकलता दिखायी दे रहा है॥41॥ |
− | जिओं जग जनकीजीवनको कहाइ जन, | + | '''जिओं जग जनकीजीवनको कहाइ जन,''' |
− | मरिबेको बरानसी बारि सुरसरिको। | + | '''मरिबेको बरानसी बारि सुरसरिको।''' |
− | तुलसीके दुहूँ हाथ मोदक है ऐसे ठाउँ | + | '''तुलसीके दुहूँ हाथ मोदक है ऐसे ठाउँ''' |
− | आके जिये मुये सोच करिहैं न लरिको॥ | + | '''आके जिये मुये सोच करिहैं न लरिको॥''' |
− | मोको झूठो साँचो लोग रामको कहत सब, | + | '''मोको झूठो साँचो लोग रामको कहत सब,''' |
− | मेरे मन मान है न हरको न हरिकों | + | '''मेरे मन मान है न हरको न हरिकों''' |
− | भारी पीर दुसह सरीरतें बिहाल होत, | + | '''भारी पीर दुसह सरीरतें बिहाल होत,''' |
− | सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि | + | '''सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को॥42॥''' |
− | भावार्थ - जानकी जीवन रामचन्द्रजीका दास कहलाकर संसार में जीवित रहूँ और मरने के लिये काशी तथा गंगाजल अर्थात सुरसरितीर है ऐसे स्थानमें (जीवन-मरणसे) तुलसी के दोनों हाथोंमें लड्डू है, जिसके जीने-मरने से लड़के भी सोच न करेगे। सब लो मुझको झूठा-सच्चा रामका ही दास कहते हैं और मेरे मनमें भी इस बात का गर्व है कि मैं रामचन्द्रजीको छोड़कर न शिवका भक्त हूँ न विष्णुका। शरीरकी भारी पीड़ासे विकल हो रहा हूँ, उसको बिना रघुनाथजीके कौन दूर कर सकता है ? | + | '''भावार्थ''' - जानकी जीवन रामचन्द्रजीका दास कहलाकर संसार में जीवित रहूँ और मरने के लिये काशी तथा गंगाजल अर्थात सुरसरितीर है ऐसे स्थानमें (जीवन-मरणसे) तुलसी के दोनों हाथोंमें लड्डू है, जिसके जीने-मरने से लड़के भी सोच न करेगे। सब लो मुझको झूठा-सच्चा रामका ही दास कहते हैं और मेरे मनमें भी इस बात का गर्व है कि मैं रामचन्द्रजीको छोड़कर न शिवका भक्त हूँ न विष्णुका। शरीरकी भारी पीड़ासे विकल हो रहा हूँ, उसको बिना रघुनाथजीके कौन दूर कर सकता है ? ॥42॥ |
− | सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, | + | '''सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित,''' |
− | हित उपदेसको महेस मानो गुरूकै। | + | '''हित उपदेसको महेस मानो गुरूकै।''' |
− | मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, | + | '''मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय,''' |
− | तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुरकै॥ | + | '''तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुरकै॥''' |
− | ब्याधि भूतजनित उपाधि काहू खलकी, | + | '''ब्याधि भूतजनित उपाधि काहू खलकी,''' |
− | समाधि कीजे तुलसीको जानि जन फरकै। | + | '''समाधि कीजे तुलसीको जानि जन फरकै।''' |
− | कपिनाथ | + | '''कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ,''' |
− | रोगसिंधु क्यौं न डारियत गाय | + | '''रोगसिंधु क्यौं न डारियत गाय खुरकै॥43॥''' |
− | भावार्थ - हे हनुमानजी ! स्वामी सीतानाथजी आपके नित्य ही सहायक है और हितोपदेशके लिये महेश मानो गुरू ही हैं। मुझे तो तन,मन,वचनसे आपके चरणोंकी ही शरण है, आपके भरोसे मैंने देवताओंको देता करके नहीं माना। रोग वा प्रेत- द्वारा उत्पन्न अथवा किसी दुष्ट उपद्रवसे हुई पीड़ाको दूर करके तुलसीको अपना सच्चा सेवक जानकर इसकी शान्ति कीजिये। हे कपिनाथ, रघुनाथ, भोलानाथ, भूतनाथ ! रोगरूपी महा-सागरको गायके खुरके समान क्यों नही कर | + | '''भावार्थ''' - हे हनुमानजी ! स्वामी सीतानाथजी आपके नित्य ही सहायक है और हितोपदेशके लिये महेश मानो गुरू ही हैं। मुझे तो तन,मन,वचनसे आपके चरणोंकी ही शरण है, आपके भरोसे मैंने देवताओंको देता करके नहीं माना। रोग वा प्रेत- द्वारा उत्पन्न अथवा किसी दुष्ट उपद्रवसे हुई पीड़ाको दूर करके तुलसीको अपना सच्चा सेवक जानकर इसकी शान्ति कीजिये। हे कपिनाथ, रघुनाथ, भोलानाथ, भूतनाथ ! रोगरूपी महा-सागरको गायके खुरके समान क्यों नही कर डालते॥43॥ |
− | कहों हनुमानसों सुजान रामरायसों, | + | '''कहों हनुमानसों सुजान रामरायसों,''' |
− | कृपानिधान संकरसों सावधान सुनिये। | + | '''कृपानिधान संकरसों सावधान सुनिये।''' |
− | हरष विषाद राग रोष गुन दोषमई, | + | '''हरष विषाद राग रोष गुन दोषमई,''' |
− | बिरची बिरंचि सब देखियत दुनिये॥ | + | '''बिरची बिरंचि सब देखियत दुनिये॥''' |
− | माया जीव कालके करमके सुभायके, | + | '''माया जीव कालके करमके सुभायके,''' |
− | करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये। | + | '''करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये।''' |
− | तुम्हतें कहा न होय हाहा सौ बुझैये मोहि, | + | '''तुम्हतें कहा न होय हाहा सौ बुझैये मोहि,''' |
− | हौं हूँ रहों मौन ही बयो सो जानि | + | '''हौं हूँ रहों मौन ही बयो सो जानि लुनिये॥44॥''' |
− | भावार्थ - मैं हनुमानजीसे, सुजान राजा रामसे और कृपानिधान शंकरजी से कहता हूँ, उसे सावधान होकर सुनिये। देखा जाता है कि विधाताने सारी दुनियाको हर्ष, विषाद, राग, रोष, गुण और दोषमय बनाया है। वे कहते हैं कि माया, जीव, काल, कर्म और स्वभाव के करने वाले रामचन्द्रजी हैं। इस बात को मैंने चित्तमें सत्य माना है। मैं विनती करता हूँ, मुझे यह समझा दीजिये कि आपसे क्या नहीं हो सकता ? फिर मैं भी यह जान कर चुप रहूँगा कि जो बोया है वही काटता | + | '''भावार्थ''' - मैं हनुमानजीसे, सुजान राजा रामसे और कृपानिधान शंकरजी से कहता हूँ, उसे सावधान होकर सुनिये। देखा जाता है कि विधाताने सारी दुनियाको हर्ष, विषाद, राग, रोष, गुण और दोषमय बनाया है। वे कहते हैं कि माया, जीव, काल, कर्म और स्वभाव के करने वाले रामचन्द्रजी हैं। इस बात को मैंने चित्तमें सत्य माना है। मैं विनती करता हूँ, मुझे यह समझा दीजिये कि आपसे क्या नहीं हो सकता ? फिर मैं भी यह जान कर चुप रहूँगा कि जो बोया है वही काटता हूँ॥44॥ |
− | इति शुभम् | + | '''इति शुभम्''' |
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16:35, 15 मई 2015 के समय का अवतरण
असन-बसन -हीन बिषम-बिषाद-लीन
देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को।
तुलसी अनाथ सा सनाथ रधुनाथ कियो,
दियो फल सीलसिंधु आपने सुभायको॥
नीच यहि बीच पति पाइ भरूहाइबो,
बिहाइ प्रभु-भजन बचन मन कायको।
तातें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस,
फूटि-फूटि निकसत लोन रामरायको॥41॥
भावार्थ - जिसे भोजन-वस्त्रसे रहित भयंकर विषादमें डूबा हुआ और दीन-दुर्बल देखकर ऐसा कौन था जो हाय-हाय नहीं करता था; ऐसे अनाथ तुलसीको दयासागर स्वामी रघुनाथजीने सनाथ करके अपने स्वभावसे उत्तम फल दिया। इस बीचमें यह नीच जन प्रतिष्ठा पाकर फूल उठा (अपनेको बड़ा समझने लगा) और तन-मन-वचनसे रामजीका भजन छोड़ दिया, इसीसे शरीरमेंसे भयंकर बरतोरके बहाने रामचन्द्रजीका नमक फूट-फूटकर निकलता दिखायी दे रहा है॥41॥
जिओं जग जनकीजीवनको कहाइ जन,
मरिबेको बरानसी बारि सुरसरिको।
तुलसीके दुहूँ हाथ मोदक है ऐसे ठाउँ
आके जिये मुये सोच करिहैं न लरिको॥
मोको झूठो साँचो लोग रामको कहत सब,
मेरे मन मान है न हरको न हरिकों
भारी पीर दुसह सरीरतें बिहाल होत,
सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को॥42॥
भावार्थ - जानकी जीवन रामचन्द्रजीका दास कहलाकर संसार में जीवित रहूँ और मरने के लिये काशी तथा गंगाजल अर्थात सुरसरितीर है ऐसे स्थानमें (जीवन-मरणसे) तुलसी के दोनों हाथोंमें लड्डू है, जिसके जीने-मरने से लड़के भी सोच न करेगे। सब लो मुझको झूठा-सच्चा रामका ही दास कहते हैं और मेरे मनमें भी इस बात का गर्व है कि मैं रामचन्द्रजीको छोड़कर न शिवका भक्त हूँ न विष्णुका। शरीरकी भारी पीड़ासे विकल हो रहा हूँ, उसको बिना रघुनाथजीके कौन दूर कर सकता है ? ॥42॥
सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित,
हित उपदेसको महेस मानो गुरूकै।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय,
तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुरकै॥
ब्याधि भूतजनित उपाधि काहू खलकी,
समाधि कीजे तुलसीको जानि जन फरकै।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ,
रोगसिंधु क्यौं न डारियत गाय खुरकै॥43॥
भावार्थ - हे हनुमानजी ! स्वामी सीतानाथजी आपके नित्य ही सहायक है और हितोपदेशके लिये महेश मानो गुरू ही हैं। मुझे तो तन,मन,वचनसे आपके चरणोंकी ही शरण है, आपके भरोसे मैंने देवताओंको देता करके नहीं माना। रोग वा प्रेत- द्वारा उत्पन्न अथवा किसी दुष्ट उपद्रवसे हुई पीड़ाको दूर करके तुलसीको अपना सच्चा सेवक जानकर इसकी शान्ति कीजिये। हे कपिनाथ, रघुनाथ, भोलानाथ, भूतनाथ ! रोगरूपी महा-सागरको गायके खुरके समान क्यों नही कर डालते॥43॥
कहों हनुमानसों सुजान रामरायसों,
कृपानिधान संकरसों सावधान सुनिये।
हरष विषाद राग रोष गुन दोषमई,
बिरची बिरंचि सब देखियत दुनिये॥
माया जीव कालके करमके सुभायके,
करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये।
तुम्हतें कहा न होय हाहा सौ बुझैये मोहि,
हौं हूँ रहों मौन ही बयो सो जानि लुनिये॥44॥
भावार्थ - मैं हनुमानजीसे, सुजान राजा रामसे और कृपानिधान शंकरजी से कहता हूँ, उसे सावधान होकर सुनिये। देखा जाता है कि विधाताने सारी दुनियाको हर्ष, विषाद, राग, रोष, गुण और दोषमय बनाया है। वे कहते हैं कि माया, जीव, काल, कर्म और स्वभाव के करने वाले रामचन्द्रजी हैं। इस बात को मैंने चित्तमें सत्य माना है। मैं विनती करता हूँ, मुझे यह समझा दीजिये कि आपसे क्या नहीं हो सकता ? फिर मैं भी यह जान कर चुप रहूँगा कि जो बोया है वही काटता हूँ॥44॥
इति शुभम्