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क्या आज स्कूल में दूध बँटा था, किसने | क्या आज स्कूल में दूध बँटा था, किसने |
00:48, 29 जून 2015 के समय का अवतरण
एक जंगल के रास्ते पर
मैली पगड़ी बाँधे चार काले चेहरे
एक बच्चा सात-आठ साल का पीछे-पीछे
लाल-लाल गर्द अपने चेहरे पर जमने दे रहे हैं
धँसी हुई आँखें, गालों के गढ़े सब भर आए हैं
धूल से
इन्हें कौनसी चीज़ अस्वीकार है --
भूख, या दया, या कंगाल चेहरा
हर मुख से केवल याचना के बोल, हर मुखर
दूसरों की ज़रूरतें समझाता, जहाँ पानी नहीं है
वहाँ चुप्पी है, आँखों की निरीह कीचड़ है
जहाँ विधायक नहीं है भारत सेवक समाज
का अध्यक्षहै, जहाँ कोई नहीं, ’केयर’ का
दूध-धुला प्रतिनिधि है
आख़िर सब कहाँ गए जिन्हें टेस्ट-वर्क में जाना था
सुबह-सुबह जंगल की ओर क्या ज़रूरत पड़ी थी, ओवरसियर
सरकारी काग़ज़ों में क्या काम दिखाएगा, गँवार सब
अपने फ़ायदे की बात भी नहीं समझते
आज क्या आएगा नेता जीप में बैठा था
कोई पत्रकार, अफ़सर, किसके लिए
पगडण्डी बनवानी है
कहीं कोई गाँव में जवान नहीं, सब बूढ़े-बुढ़िया
तसला लेकर बैठे हुए, बच्चे व्यग्र लोभ से
खिचड़ी का फदकना निहारते
क्या आज स्कूल में दूध बँटा था, किसने
कितनी मिट्टी काटी, क्या कोई दाता धुले हुए
कपड़े ले आया था, किस बुढ़िया को साड़ी
नहीं मिली, गर्मी में भी कम्बल किसने
लूटा
ताऊन और चेचक और अख़बार की ख़बर
और अगले नेता का स्वागत, क्या अस्पताल का
बड़ा डॉक्टर भी आएगा
बाज़ार में आज छह छँटाक की ही दाल मिली, प्याज भी
चाँदी की तरह तेज़, डेढ़ रुपए कचहरी में
लग गए, कहाँ से लाते तरबूज, सुना ऊँचगाँव में
कोई ग़मी हो गई है
सुबह से ही उठने लगता है बवण्डर, उड़-उड़ कर धूल
ज़मीन की परतें उघाड़ती हुई सिवान पर सिवान
करती रहती है पार, कहीं दूर रेगिस्तानी टीले
खड़े हो रहे हैं, देवी का मन्दिर कहीं देसावर में
रख दिया सुदामा ने अपने बेटे की नौकरी का
सवाल, अफ़सर भला है, फिर ब्राह्मण है,
करेगा कुछ ख़याल, इतना बड़ा धर्म का काम
इनके सिर है, ये हज़ारों के पालता
कभी के सूखे पड़े पत्तों पर रात को
दो ओस की बूँदें टपक जाती हैं
पसली-पसली गाय रात भर घूमती रहती है
जंगल में बदहवास, सुबह कहीं थमकर
बैठ जाती है
किसी दरवाज़े, किसी बैठके में चार-छह लोग
सुरती ठोंकते, तमाकू जगाते बैठ जाते हैं
क़िस्सा छेड़ते किसी साल का जब ठाकुर की
सात-सात भैंसे एक-एक कर सिवान में
अचेत हो गई थीं, कोई मृत्यु के समय मुख में
गंगाजल भी डाल नहीं पाया था
बहुत सारे चेहरे डबर-डबर आँखों से झाँकते हैं
थोड़ी दूर पर वही आँखें डूब जाती हैं, कुछ धब्बे
बियाबान में चक्कर लगाते किसी काले तारे की तरह
और सब मिलकर बहुत बाद में चन्द्रमा का कलंक बन जाते हैं