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"उसे रोने की मनाही / रमणिका गुप्ता" के अवतरणों में अंतर

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<poem>अभिजन जमात् में कवि चितेरे शिल्पी
 
<poem>अभिजन जमात् में कवि चितेरे शिल्पी
 
कलाकार-साहित्यकार
 
कलाकार-साहित्यकार

23:20, 13 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण

अभिजन जमात् में कवि चितेरे शिल्पी
कलाकार-साहित्यकार
सबने
औरत को खूब निखारा
सजोया-संवारा

उसकी गुलामी को कहा
मर्यादा
हत्या को कुर्बानी
मौत को मुक्ति
जल जाने को सती
सौन्दर्य को ‘माया’ ठगनी
खुद्दारी को
कुल्टा नटनी कुटनी
और न जाने क्या-क्या
कहा

सम्पदा के बटखरों से
हीनता के तराजू पर
मर्यादा की डण्डी मार
औरत को तोला
सतीत्व की कसौटी पर परखा
उसे रोने की मनाही
हंसना वर्जित
वह ‘आदमी’ के दर्जे से वंचित
बोली तो कौमे लग गये
पूछी तो
प्रश्नवाचक तन गये
महसूसी तो
विस्मयबोधक डट गए
उसने तर्क दिया
तो पूर्ण विराम के दण्ड अड़ गये

ज्ञान उसके लिए वर्जित
किताबें बन्द
उसकी पहुंच के बाहर
केवल शृंगार की पात्रा
भोग्या
देवी-रूपा दासी
न बोलने वाली गुड़िया
सिर हिलाती कठपुतली
किसी अदृश्य डोर से बंधी
पिता पति भाई पुत्र में बंटी
किसी भी एक के
खूंटे से बंधी

थिरकती सीमा के भीतर
ठुमकती घर के अन्दर
सोती उठती बैठती
कभी न लांघती परिधि
खुद ही अपने गले में
हाथ और पांव में
डाले बंधन
दासता का उत्सव मनाती
उसे ही शृंगार
सुहाग-भाग मानती
बंधे पांव चलती
लड़खड़ाती-लड़खड़ाती
सदियां कर गई पार

किमोनों से घिरी
गाउन में व्यस्त
जकड़ी अकड़ी औरत
कमर को करधनी से कसे
चारदीवारी में कैद
मीनारों से ताकती
झरोखों से झांकती
जोहती घूंघट से बाट
बंधी पति के
अदृश्य खूंटे के साथ

चुप्पी साधे
तन्वंगी कोमल मूर्ति
पल-पल में कुम्हलाती
बात-बात में लजाती
शर्मा कर भागती औरत
मूल्यों की प्रतिमूर्ति
मर्यादा का रूपक

तर्क करती उन्मुक्त भागती
हंसती गाती
ज़ोर-ज़ोर से हकांती
चिल्लाती
जी-भर रोती हंसती गाती
बतियाती वाचाल औरत
मेहनतकश
मशकत के पसीने से लथ-पथ
आज़ाद औरत
सभ्य औरत के दायरे से
बाहर कर दी गयी
सावित्री और सीता के
मानदंड पर
छोटी
मर्यादा के पलड़े पर
हल्की हौली
संस्कारों की कसौटी पर पीतल
ठहरा दी गई!