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"रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 1" के अवतरणों में अंतर

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|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
 
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प्रेमयज्ञ अति कठिन, कुण्ड में कौन वीर बलि देगा?
 
प्रेमयज्ञ अति कठिन, कुण्ड में कौन वीर बलि देगा?
 
 
तन, मन, धन, सर्वस्व होम कर अतुलनीय यश लेगा?
 
तन, मन, धन, सर्वस्व होम कर अतुलनीय यश लेगा?
 
 
हरि के सम्मुख भी न हार जिसकी निष्ठा ने मानी,
 
हरि के सम्मुख भी न हार जिसकी निष्ठा ने मानी,
 
 
धन्य धन्य राधेय! बंधुता के अद्भुत अभिमानी।
 
धन्य धन्य राधेय! बंधुता के अद्भुत अभिमानी।
 
  
 
पर, जाने क्यों, नियम एक अद्भुत जग में चलता है,
 
पर, जाने क्यों, नियम एक अद्भुत जग में चलता है,
 
 
भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है।
 
भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है।
 
 
हरियाली है जहां, जलद भी उसी खण्ड के वासी,
 
हरियाली है जहां, जलद भी उसी खण्ड के वासी,
 
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मरु की भूमि मगर,रह जाती है प्यासी की प्यासी।
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और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है,
 
और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है,
 
 
सचमुच, उसके लिए उसे सब कुछ देना पड़ता है।
 
सचमुच, उसके लिए उसे सब कुछ देना पड़ता है।
 
 
नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर,
 
नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर,
 
 
दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर।
 
दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर।
 
  
 
पर, तब भी रेखा प्रकाश की जहां कहीं हँसती है,
 
पर, तब भी रेखा प्रकाश की जहां कहीं हँसती है,
 
 
वहाँ किसी प्रज्वलित वीर नर की आभा बस्ती है।
 
वहाँ किसी प्रज्वलित वीर नर की आभा बस्ती है।
 
 
जिसने छोड़ी नहीं लीक विपदाओं से घबरा कर,
 
जिसने छोड़ी नहीं लीक विपदाओं से घबरा कर,
 
 
दी जग को रौशनी टेक पर अपनी जान गंवाकर।
 
दी जग को रौशनी टेक पर अपनी जान गंवाकर।
 
  
 
नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है,
 
नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है,
 
 
देता वही प्रकाश, आग में जो अभीत जलता है।
 
देता वही प्रकाश, आग में जो अभीत जलता है।
 
 
आजीवन झेलते दाह का दंश वीर-व्रतधारी,
 
आजीवन झेलते दाह का दंश वीर-व्रतधारी,
 
 
हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी।
 
हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी।
 
  
 
प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना,
 
प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना,
 
 
सबसे बड़ी जांच है व्रत का अंतिम मोल चुकाना।
 
सबसे बड़ी जांच है व्रत का अंतिम मोल चुकाना।
 
 
अंतिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या?
 
अंतिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या?
 
 
करने लगे मोह प्राणों का - तो फिर प्रण लेना क्या?
 
करने लगे मोह प्राणों का - तो फिर प्रण लेना क्या?
 
  
 
सस्ती कीमत पर बिकती रहती जब तक कुर्बानी ,
 
सस्ती कीमत पर बिकती रहती जब तक कुर्बानी ,
 
 
तब तक सभी बने रह सकते हैं त्यागी, बलिदानी।
 
तब तक सभी बने रह सकते हैं त्यागी, बलिदानी।
 
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पर, महंगी में मोल तपस्या का देना दुष्कर है,
पर, महंगी में मोल तपस्या का देना दुष्कर है,
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हंस कर दे यह मूल्य, न मिलता वह मनुष्य घर घर है।
 
हंस कर दे यह मूल्य, न मिलता वह मनुष्य घर घर है।
 
  
 
जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है,
 
जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है,
 
 
उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है|
 
उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है|
 
 
और दान मे रोकर या हँसकर हम जो देते हैं,
 
और दान मे रोकर या हँसकर हम जो देते हैं,
 
 
अहंकार-वश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं|
 
अहंकार-वश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं|
 
  
 
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,
 
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,
 
 
रखना उसको रोक मृत्यु के पहले ही मरना है।
 
रखना उसको रोक मृत्यु के पहले ही मरना है।
 
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किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं?
किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं?
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गिरने से उसको संभाल क्यों रोक नहीं लेते हैं?
 
गिरने से उसको संभाल क्यों रोक नहीं लेते हैं?
 
  
 
ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है,
 
ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है,
 
 
मोह दिखाना देय वास्तु पर आत्मघात करना है।
 
मोह दिखाना देय वास्तु पर आत्मघात करना है।
 
 
देते तरु इसलिए कि रेशों में मत कीट समायें
 
देते तरु इसलिए कि रेशों में मत कीट समायें
 
 
रहे डालियाँ स्वस्थ और फिर नए नए फल आयें।
 
रहे डालियाँ स्वस्थ और फिर नए नए फल आयें।
 
  
 
सरिता देती वारि कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,
 
सरिता देती वारि कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,
 
 
बरसे मेघ, भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो।
 
बरसे मेघ, भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो।
 
 
आत्मदान के साथ जगज्जीवन का ऋजु नाता है,
 
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जो देता जितना बदले में उतना ही पाता है।
जो देता जितना बदले में उतना ही पाता है।  
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दिखलाना कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है,
 
दिखलाना कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है,
 
 
रखना दान अपूर्ण, रिक्ति निज का ही रह जाना है।
 
रखना दान अपूर्ण, रिक्ति निज का ही रह जाना है।
 
 
व्रत का अंतिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं,
 
व्रत का अंतिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं,
 
 
पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं।
 
पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं।
 
  
 
जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है,
 
जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है,
 
 
वही मृत्यु के मुख मे भी पड़कर न कभी मरता है।
 
वही मृत्यु के मुख मे भी पड़कर न कभी मरता है।
 
 
जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,
 
जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,
 
 
वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकानेवाला।
 
वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकानेवाला।
 
  
 
व्रत का अंतिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को,
 
व्रत का अंतिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को,
 
 
जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को।
 
जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को।
 
 
दिया अस्थि देकर दधीचि नें, शिवि ने अंग कतर कर,
 
दिया अस्थि देकर दधीचि नें, शिवि ने अंग कतर कर,
 
 
हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँगते हुए सत्य पर अड़ कर।
 
हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँगते हुए सत्य पर अड़ कर।
 
  
 
ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर,
 
ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर,
 
 
अंतिम मूल्य दिया गाँधी ने तीन गोलियाँ खाकर।
 
अंतिम मूल्य दिया गाँधी ने तीन गोलियाँ खाकर।
 
 
सुन अंतिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की,
 
सुन अंतिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की,
 
 
सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की।
 
सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की।
 
  
 
हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का व्रत पाला,
 
हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का व्रत पाला,
 
 
अमर हुआ सुकरात जगत मे पीकर विष का प्याला।
 
अमर हुआ सुकरात जगत मे पीकर विष का प्याला।
 
 
मारकर भी मनसूर नियति की सह पाया ना ठिठोली,
 
मारकर भी मनसूर नियति की सह पाया ना ठिठोली,
 
 
उत्तर मे सौ बार चीखकर बोटी-बोटी बोली।
 
उत्तर मे सौ बार चीखकर बोटी-बोटी बोली।
 
  
 
दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,
 
दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,
 
 
एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
 
एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
 
 
बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
 
बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
 
 
ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं।
 
ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं।
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22:51, 30 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

प्रेमयज्ञ अति कठिन, कुण्ड में कौन वीर बलि देगा?
तन, मन, धन, सर्वस्व होम कर अतुलनीय यश लेगा?
हरि के सम्मुख भी न हार जिसकी निष्ठा ने मानी,
धन्य धन्य राधेय! बंधुता के अद्भुत अभिमानी।

पर, जाने क्यों, नियम एक अद्भुत जग में चलता है,
भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है।
हरियाली है जहां, जलद भी उसी खण्ड के वासी,
मरु की भूमि मगर,रह जाती है प्यासी की प्यासी।

और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है,
सचमुच, उसके लिए उसे सब कुछ देना पड़ता है।
नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर,
दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर।

पर, तब भी रेखा प्रकाश की जहां कहीं हँसती है,
वहाँ किसी प्रज्वलित वीर नर की आभा बस्ती है।
जिसने छोड़ी नहीं लीक विपदाओं से घबरा कर,
दी जग को रौशनी टेक पर अपनी जान गंवाकर।

नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है,
देता वही प्रकाश, आग में जो अभीत जलता है।
आजीवन झेलते दाह का दंश वीर-व्रतधारी,
हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी।

प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना,
सबसे बड़ी जांच है व्रत का अंतिम मोल चुकाना।
अंतिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या?
करने लगे मोह प्राणों का - तो फिर प्रण लेना क्या?

सस्ती कीमत पर बिकती रहती जब तक कुर्बानी ,
तब तक सभी बने रह सकते हैं त्यागी, बलिदानी।
पर, महंगी में मोल तपस्या का देना दुष्कर है,
हंस कर दे यह मूल्य, न मिलता वह मनुष्य घर घर है।

जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है,
उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है|
और दान मे रोकर या हँसकर हम जो देते हैं,
अहंकार-वश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं|

यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,
रखना उसको रोक मृत्यु के पहले ही मरना है।
किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं?
गिरने से उसको संभाल क्यों रोक नहीं लेते हैं?

ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है,
मोह दिखाना देय वास्तु पर आत्मघात करना है।
देते तरु इसलिए कि रेशों में मत कीट समायें
रहे डालियाँ स्वस्थ और फिर नए नए फल आयें।

सरिता देती वारि कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,
बरसे मेघ, भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो।
आत्मदान के साथ जगज्जीवन का ऋजु नाता है,
जो देता जितना बदले में उतना ही पाता है।

दिखलाना कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है,
रखना दान अपूर्ण, रिक्ति निज का ही रह जाना है।
व्रत का अंतिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं,
पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं।

जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है,
वही मृत्यु के मुख मे भी पड़कर न कभी मरता है।
जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,
वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकानेवाला।

व्रत का अंतिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को,
जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को।
दिया अस्थि देकर दधीचि नें, शिवि ने अंग कतर कर,
हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँगते हुए सत्य पर अड़ कर।

ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर,
अंतिम मूल्य दिया गाँधी ने तीन गोलियाँ खाकर।
सुन अंतिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की,
सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की।

हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का व्रत पाला,
अमर हुआ सुकरात जगत मे पीकर विष का प्याला।
मारकर भी मनसूर नियति की सह पाया ना ठिठोली,
उत्तर मे सौ बार चीखकर बोटी-बोटी बोली।

दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,
एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं।