'''भूमिका'''
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=प्रदीप मिश्र|संग्रह= शीर्षक पाठ }} {{KKCatKavita}}<poem> =भूमिका = [[प्रदीप मिश्र लगभग तीन दशकों से कविता लिख रहे हैं। ‘उम्मीद’ उनका दूसरा संग्रह है। इसके पहले ‘फिर कभी’ नामसे एक संगरा संग्रह आया था। इससे ज़ाहिर है कि प्रकाशन के प्रति उनमें वैसी ललक नहीं है जो आजकल युवा पीढ़ी मे झलकती है। बल्कि कुछ हद तक उदासीनता है। यह संग्रह मेरे आग्रह पर तैयार हुआ। जितने लापरवाह प्रदीप संग्रह तैयार करने में हैं, उतने ही संग्रह को रूपरेखा देने में भी हैं। यह संग्रह बहुत सुनियोजित नहीं है तो इसका दोष कुछ हद तक मुझ पर है। फिर भी, काविताएँ अपनी पहचान खुद बनाएँगी, इसलिए योजना की त्रुटियाँ उतना ध्यान शायद न खींचेंगी।
प्रदीप कवि हैं लेकिन कविता उनकी प्राथमिकता नहीं है। हिन्दी (या साहित्य) के अलावा वे ज्योतिर्विज्ञान और अभियांत्रिकी जैसे अत्यंत भिन्न अनुशासनों से सम्बद्ध हैं। यह कहना कठिन है कि परमाणु अभियांत्रिकी की सरकारी सेवा और ज्योतिर्विज्ञान का अभ्यास एक-दूसरे के आड़े किस सीमा तक आते हैं, लेकिन दोनों मिलकर कविता का समय अवश्य छीनते हैं, यह प्रदीप की कविताओं को पढ़कर निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है। साथ ही, उनका वैज्ञानिक उनकी कवि-दृष्टि के व्यवहार में सहायक भी बनता है। उनके पास किसी भी समस्या के मर्म में घुसकर उसका विश्लेषण करने की योग्यता है; इसका बहुत कुछ श्रेय उनकी सजग, प्रगतिशील जीवन-दृष्टि और उनके वैज्ञानिक मिज़ाज को है। लेकिन उनका ज्योतिर्विज्ञान भी कविता की सहायता करता है, इसका उदाहरण यह है कि प्रदीप यह देखने में सक्षम हैं कि—
‘नास्तिक के हृदय में रहती है आस्था।‘
प्रदीप की समवेदनशीलता, अंतससंबंधों को देखने की उनकी दृष्टि और ऐतिहासिक चेतना मिलकर उन्हें आज के भयावह समय में भी निराशावादी और ‘सैनिक’ नहीं बनने देते। इसीलिए वे परिहास के स्वर में भी अपना यह भरोसा अभिव्यक्त कए देते हैं कि “आस्वाद उस हवा का जो ऐन डैम घुटने से पहले पहुँच गयी फेफड़ों में।“ और, “विश्वास उस स्वप्न का जो नींद टूटने के बाद भी बना रहा आँखों में।“ इसलिए प्रदीप की कविता अपनी सारी सीमाओं और सरलीकरणों के रहते हुए भी न तो निराशा में ले जाति है, न काल्पनिक संसार में। वह सभी चीजों का अनुपात पहचानती है। उसके लिए स्वप्न अछूत है न यथार्थ, भावना अछूत है न विचारधारा, वर्तमान अछूत है न इतिहास-बोध, कलाकारिता अछूत है न सादगी। अगर वह कविता को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल कर सके तो उसकी निजी पहचान अधिक समृद्ध होगी, इसमे संदेह नहीं।
नयी दिल्ली, 17 जनवरी, 2015
अजय तिवारी,]]</poem>