भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"घर / एकराम अली" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=एकराम अली |अनुवादक=उत्पल बैनर्ज...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=एकराम अली | |रचनाकार=एकराम अली | ||
− | |अनुवादक= | + | |अनुवादक=उत्पल बैनर्जी |
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
}} | }} |
07:51, 8 जून 2016 के समय का अवतरण
घर पर ताला लगा है
यहाँ कोई नहीं रहता
जो मर गए हैं और ज़िन्दा हैं जो
अब यहाँ कोई नहीं है,
सिर्फ़ धूल, हवा, कीट-पतंग
और साँप वग़ैरह
रह गए हैं यहाँ,
उड़ आते हैं झरे पत्ते, घास-फूस
और जाम के पत्ते झर जाने पर
आती है ठण्ड,
आम पर बौर आने पर
हम समझ जाते हैं कि वसन्त आ गया है
घास के जंगल से ढँके
बारिश वाले आँगन में
नारियल के पेड़ पर झूलते हैं
कच्चे डाभ और पके नारियल
धूप बारिश तूफ़ान
और बीच-बीच में झुलसाती गर्मी में
वह बन्द घर धीरे-धीरे
निहायत आत्मकेन्द्रित हो गया है!
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी