"जिस में मैं तिरता हूँ / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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− | + | <poem> | |
− | जिस में मैं तिरता हूँ। | + | कुछ है |
− | जब कि आस-पास | + | जिस में मैं तिरता हूँ। |
− | न जाने क्या-क्या झिरता है | + | जब कि आस-पास |
− | जिसे देख-देख मैं ही मानों | + | न जाने क्या-क्या झिरता है |
− | कनी-कनी किरता हूँ। | + | जिसे देख-देख मैं ही मानों |
+ | कनी-कनी किरता हूँ। | ||
− | ये जो डूब रहे हैं धीरे-धीरे | + | ये जो डूब रहे हैं धीरे-धीरे |
− | यादों के खंडहर हैं। | + | यादों के खंडहर हैं। |
− | अब मैं नहीं जानता किधर द्वार हैं | + | अब मैं नहीं जानता किधर द्वार हैं |
− | किधर आंगन, खिड़कियाँ, झरोखे; | + | किधर आंगन, खिड़कियाँ, झरोखे; |
− | पर ये सब मेरे ही बनाए हुए घर हैं। | + | पर ये सब मेरे ही बनाए हुए घर हैं। |
− | इतना तो अब भी है | + | इतना तो अब भी है |
− | कि चाहूँ तो पहचान लूँ | + | कि चाहूँ तो पहचान लूँ |
− | कि कौन इसमें बसते थे, | + | कि कौन इसमें बसते थे, |
− | (मैंने ही तो बसाए थे, | + | (मैंने ही तो बसाए थे, |
− | मेरे इशारों पर हँसते थे), | + | मेरे इशारों पर हँसते थे), |
− | पर उन के चेहरों और मेरी चाहों के बीच | + | पर उन के चेहरों और मेरी चाहों के बीच |
− | आह, कितने पुराने, अन्धे, पर आज भी अथाह डर | + | आह, कितने पुराने, अन्धे, पर आज भी अथाह डर हैं! |
− | डूबते हैं, डूब जाने दो। | + | डूबते हैं, डूब जाने दो। |
− | चेहरों और घरों के साथ | + | चेहरों और घरों के साथ |
− | खाइयों और डरों को भी | + | खाइयों और डरों को भी |
− | लय पाने दो। | + | लय पाने दो। |
− | यह जो नदी है, यों तो मेरी अनजानी है | + | यह जो नदी है, यों तो मेरी अनजानी है |
− | इतनी-भर देखी है कि पहचानूँ, बहुत पुरानी है। | + | इतनी-भर देखी है कि पहचानूँ, बहुत पुरानी है। |
− | डूबे, सब डूब | + | डूबे, सब डूब जाए, |
− | तब एक जो बुल्ला उठेगा, | + | तब एक जो बुल्ला उठेगा, |
− | उभर कर फूटेगा, | + | उभर कर फूटेगा, |
− | और उस की रंगीनी का | + | और उस की रंगीनी का रहेगा— |
− | क्या? कुछ नहीं! | + | क्या? कुछ नहीं! |
− | तभी तो मेरा यह बचा हुआ भरम टूटेगा | + | तभी तो मेरा यह बचा हुआ भरम टूटेगा |
− | यह सँचा हुआ, पर सच में सत्त्वहीन | + | यह सँचा हुआ, पर सच में सत्त्वहीन |
अहम् ढहेगा, ढहेगा। | अहम् ढहेगा, ढहेगा। | ||
+ | </poem> |
21:56, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
कुछ है
जिस में मैं तिरता हूँ।
जब कि आस-पास
न जाने क्या-क्या झिरता है
जिसे देख-देख मैं ही मानों
कनी-कनी किरता हूँ।
ये जो डूब रहे हैं धीरे-धीरे
यादों के खंडहर हैं।
अब मैं नहीं जानता किधर द्वार हैं
किधर आंगन, खिड़कियाँ, झरोखे;
पर ये सब मेरे ही बनाए हुए घर हैं।
इतना तो अब भी है
कि चाहूँ तो पहचान लूँ
कि कौन इसमें बसते थे,
(मैंने ही तो बसाए थे,
मेरे इशारों पर हँसते थे),
पर उन के चेहरों और मेरी चाहों के बीच
आह, कितने पुराने, अन्धे, पर आज भी अथाह डर हैं!
डूबते हैं, डूब जाने दो।
चेहरों और घरों के साथ
खाइयों और डरों को भी
लय पाने दो।
यह जो नदी है, यों तो मेरी अनजानी है
इतनी-भर देखी है कि पहचानूँ, बहुत पुरानी है।
डूबे, सब डूब जाए,
तब एक जो बुल्ला उठेगा,
उभर कर फूटेगा,
और उस की रंगीनी का रहेगा—
क्या? कुछ नहीं!
तभी तो मेरा यह बचा हुआ भरम टूटेगा
यह सँचा हुआ, पर सच में सत्त्वहीन
अहम् ढहेगा, ढहेगा।