"खतरा अस्तित्व का / रमा द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर
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− | आदमी न जी पाता है , | + | |
− | + | किसी से प्रेम इतना न करो | |
− | पूरा अस्तित्व ही | + | कि वो विवशता का रूप ले ले, |
− | खतरे में | + | क्योंकि विवशता को ढोने में , |
− | किसी से प्रेम इतना न करो | + | जीवन व्यर्थ चला जाता है । |
− | कि वो विवशता | + | पूरा अस्तित्व ही |
− | क्योंकि विवशता को ढोने में , | + | खतरे में पड़ जाता है॥ |
− | जीवन व्यर्थ चला जाता है । | + | प्रेम जीवन के लिये है अनिवार्य, |
− | पूरा अस्तित्व ही | + | किन्तु वह जीवन का लक्ष्य नहीं, |
− | खतरे में | + | प्रेम में तपने-मिटने के सिवा , |
− | प्रेम जीवन के लिये है अनिवार्य, | + | कुछ हाथ नही आता है? |
− | किन्तु वह जीवन का लक्ष्य नहीं, | + | पूरा अस्तित्व ही |
− | प्रेम में तपने-मिटने के सिवा , | + | खतरे में पड़ जाता है॥ |
− | कुछ हाथ नही आता है? | + | |
− | पूरा अस्तित्व ही | + | जिन्दगी सिर्फ़ प्रेम से चल सकती नहीं, |
− | खतरे में | + | जिन्दगी एक ही बिन्दु पर रुक सकती नहीं, |
− | जिन्दगी सिर्फ़ प्रेम से चल सकती नहीं, | + | किन्तु प्रेम की अनुभूति से - |
− | जिन्दगी एक | + | जीवन संभल-संवर जाता है। |
− | किन्तु प्रेम की अनुभूति से - | + | पूरा अस्तित्व ही |
− | जीवन संभल -संवर जाता है। | + | खतरे में पड़ जाता है॥ |
− | पूरा अस्तित्व ही | + | |
− | खतरे में | + | १९८७ में रचित |
− | १९८७ में रचित < | + | </poem> |
21:22, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
किसी को हद से
ज्यादा मत चाहो,
पूरा अस्तित्व ही
खतरे में पड़ जाता हॆ ।
खोकर अपनी पहचान ,
आदमी न जी पाता है ,
न मर पाता है ।
पूरा अस्तित्व ही
खतरे में पड़ जाता है॥
किसी से प्रेम इतना न करो
कि वो विवशता का रूप ले ले,
क्योंकि विवशता को ढोने में ,
जीवन व्यर्थ चला जाता है ।
पूरा अस्तित्व ही
खतरे में पड़ जाता है॥
प्रेम जीवन के लिये है अनिवार्य,
किन्तु वह जीवन का लक्ष्य नहीं,
प्रेम में तपने-मिटने के सिवा ,
कुछ हाथ नही आता है?
पूरा अस्तित्व ही
खतरे में पड़ जाता है॥
जिन्दगी सिर्फ़ प्रेम से चल सकती नहीं,
जिन्दगी एक ही बिन्दु पर रुक सकती नहीं,
किन्तु प्रेम की अनुभूति से -
जीवन संभल-संवर जाता है।
पूरा अस्तित्व ही
खतरे में पड़ जाता है॥
१९८७ में रचित