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"भटका मेघ (कविता) / श्रीकांत वर्मा" के अवतरणों में अंतर

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भटक गया हूँ---
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मैं असाढ़ का पहला बादल
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श्वेत फूल-सी अलका की
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मैं पंखुरियों तक छू न सका हूँ
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किसी शाप से शप्त हुआ
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दिग्भ्रमित हुआ हूँ।
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शताब्दियों के अंतराल में घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।
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कालिदास मैं भटक गया हूँ,
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मोती के कमलों पर बैठी
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अलका का पथ भूल गया हूँ।
  
भटक गया हूँ---<br>
+
मेरी पलकों में अलका के सपने जैसे डूब गये हैं।
मैं असाढ़ का पहला बादल<br>
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मुझमें बिजली बन आदेश तुम्हारा
श्वेत फूल-सी अलका की<br>
+
अब तक कड़क रहा है।
मैं पंखुरियों तक छू न सका हूँ<br>
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आँसू धुला रामगिरी काले हाथी जैसा मुझे याद है।
किसी शाप से शप्त हुआ<br>
+
लेकिन मैं निरपेक्ष नहीं, निरपेक्ष नहीं हूँ।
दिग्भ्रमित हुआ हूँ।<br>
+
मुझे मालवा के कछार से
शताब्दियों के अंतराल में घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।<br>
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साथ उड़ाती हुई हवाएँ
कालिदास मैं भटक गया हूँ,<br>
+
कहाँ न जाने छोड़ गयी हैं !
मोती के कमलों पर बैठी<br>
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अगर कहीं अलका बादल बन सकती
अलका का पथ भूल गया हूँ।<br><br>
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मैं अलका बन सकता !
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मुझे मालवा के कछार से
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साथ उड़ाती हुई हवाएँ
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उज्जयिनी में पल भर जैसे
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ठिठक गयी थीं, ठहर गयी थीं,
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क्षिप्रा की वह क्षीण धार छू
 +
सिहर गयी थीं।
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मैंने अपने स्वागत में तब कितने हाथ जुड़े पाये थे।
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मध्य मालवा, मध्य देश में
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कितने खेत पड़े पाये थे।
  
मेरी पलकों में अलका के सपने जैसे डूब गये हैं।<br>
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कितने हलों, नागरों की तब
मुझमें बिजली बन आदेश तुम्हारा<br>
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नोकें मेरे वक्ष गड़ी थीं।
अब तक कड़क रहा है।<br>
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कितनी सरिताएँ धनु की ढीली डोरी-सी क्षीण पड़ी थीं।
आँसू धुला रामगिरी काले हाथी जैसा मुझे याद है।<br>
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तालपत्र-सी धरती,
लेकिन मैं निरपेक्ष नहीं, निरपेक्ष नहीं हूँ।<br>
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सूखी, दरकी, कबसे फटी हुई थी।
मुझे मालवा के कछार से<br>
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माँयें मुझे निहार रही थीं, वधुएँ मुझे पुकार रही थीं,
साथ उड़ाती हुई हवाएँ<br>
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बीज मुझे ललकार रहे थे,
कहाँ न जाने छोड़ गयी हैं !<br>
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ऋतुएँ मुझे गुहार रही थीं।
अगर कहीं अलका बादल बन सकती<br>
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साथ उड़ाती हुई हवाएँ<br>
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उज्जयिनी में पल भर जैसे<br>
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ठिठक गयी थीं, ठहर गयी थीं,<br>
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क्षिप्रा की वह क्षीण धार छू<br>
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सिहर गयी थीं।<br>
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मैंने अपने स्वागत में तब कितने हाथ जुड़े पाये थे।<br>
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मध्य मालवा, मध्य देश में<br>
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कितने खेत पड़े पाये थे।<br><br>
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कितने हलों, नागरों की तब<br>
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मैंने शैशव की  
नोकें मेरे वक्ष गड़ी थीं।<br>
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निर्दोष आँख में तब पानी देखा था।
कितनी सरिताएँ धनु की ढीली डोरी-सी क्षीण पड़ी थीं।<br>
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मुझे याद आया,
तालपत्र-सी धरती,<br>
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मैं ऐसी ही आँखों का कभी नमक था।
सूखी, दरकी, कबसे फटी हुई थी।<br>
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अब धरती से दूर हुआ
माँयें मुझे निहार रही थीं, वधुएँ मुझे पुकार रही थीं,<br>
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मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
निर्दोष आँख में तब पानी देखा था।<br>
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तब से अब तक भटक रहा हूँ।
मुझे याद आया,<br>
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अब तक वैसे हाथ जुड़े हैं,
मैं ऐसी ही आँखों का कभी नमक था।<br>
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अब तक सूखे पेड़ खड़े हैं,
अब धरती से दूर हुआ<br>
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अब तक उजड़ी हैं खपरैलें,
मैं आसमान का धब्बा भर था।<br><br>
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अब तक प्यासे खेत पड़े हैं।
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मैली-मैली सी संध्या में
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धरती के सपने उजड़ रहे हैं।
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मैं बादल, मेरे अंदर कितने ही बादल घुमड़ रहे हैं।
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कितने आँसू टप, टप, टप
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मेरी छाती पर टपक रहे हैं।
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वाष्प चक्र-सा घूम रहा हूँ।
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रूखा मस्तक चूम रहा हूँ।
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घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।
  
मुझे क्षमा करना कवि मेरे!<br>
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जिस पृथ्वी से जन्मा
तब से अब तक भटक रहा हूँ।<br>
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यह कैसे सम्भव है ?
अब तक सूखे पेड़ खड़े हैं,<br>
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पानी की जड़ है पृथ्वी में
अब तक उजड़ी हैं खपरैलें,<br>
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बादल तो केवल पल्लव है।
अब तक प्यासे खेत पड़े हैं।<br>
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मुझमें अंतर्द्वन्द्व छिड़ा है।
मैली-मैली सी संध्या में<br>
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मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
झरते पलाश के पत्तों-से<br>
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धरती के सपने उजड़ रहे हैं।<br>
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उससे कुछ ज़्यादा देखा है।
मैं बादल, मेरे अंदर कितने ही बादल घुमड़ रहे हैं।<br>
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मैंने सदियों को मनुष्य की आँखों में घुलते देखा है।
कितने आँसू टप, टप, टप<br>
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मेरा मन भर आया है कवि,
मेरी छाती पर टपक रहे हैं।<br>
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अब न रुकूँगा।
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बिजली बन लपक रहे हैं।<br>
+
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अन्दर-ही-अन्दर मैं<br>
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कबसे फफक रहा हूँ।<br>
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सुखी रहे तेरी अलका मैं
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यहीं झरूँगा।
भभक रहा हूँ।<br>
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यहीं मरूँगा।
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मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
रूखा मस्तक चूम रहा हूँ।<br>
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घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।<br><br>
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अब अँकुआये धान,
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+
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बादल तो केवल पल्लव है।<br>
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मेरा मन भर आया है कवि,<br>
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अब न रुकूँगा।<br>
+
अलका भूल चुकी मैं अब तो<br>
+
इस धरती की प्यास हरूँगा।<br>
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सूखे पेड़ों, पौधों, अँकुओं की अब मौन पुकार सुनूँगा।<br>
+
सुखी रहे तेरी अलका मैं<br>
+
यहीं झरूँगा।<br>
+
अगर मृत्यु भी मिली<br>
+
मुझे तो<br>
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यहीं मरूँगा।<br>
+
मुझे क्षमा करना कवि मेरे!<br>
+
मैं अब अलका जा न सकूँगा।<br>
+
मुझे समय ने याद किया है<br>
+
मैं खुद को बहला न सकूँगा।<br>
+
अब अँकुआये धान,<br>
+
किसी कजरी में तुम मुझको पा लेना।<br>
+
मैं नहीं हूँ कृतघ्न मुझे तुम शाप न देना!<br>
+
मैं असाढ़ का पहला बादल<br>
+
शताब्दियों के अंतराल में घूम रहा हूँ।<br>
+
 
बार-बार सूखी धरती का रूखा मस्तक चूम रहा हूँ।
 
बार-बार सूखी धरती का रूखा मस्तक चूम रहा हूँ।
 +
</poem>

20:56, 14 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण

भटक गया हूँ---
मैं असाढ़ का पहला बादल
श्वेत फूल-सी अलका की
मैं पंखुरियों तक छू न सका हूँ
किसी शाप से शप्त हुआ
दिग्भ्रमित हुआ हूँ।
शताब्दियों के अंतराल में घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।
कालिदास मैं भटक गया हूँ,
मोती के कमलों पर बैठी
अलका का पथ भूल गया हूँ।

मेरी पलकों में अलका के सपने जैसे डूब गये हैं।
मुझमें बिजली बन आदेश तुम्हारा
अब तक कड़क रहा है।
आँसू धुला रामगिरी काले हाथी जैसा मुझे याद है।
लेकिन मैं निरपेक्ष नहीं, निरपेक्ष नहीं हूँ।
मुझे मालवा के कछार से
साथ उड़ाती हुई हवाएँ
कहाँ न जाने छोड़ गयी हैं !
अगर कहीं अलका बादल बन सकती
मैं अलका बन सकता !
मुझे मालवा के कछार से
साथ उड़ाती हुई हवाएँ
उज्जयिनी में पल भर जैसे
ठिठक गयी थीं, ठहर गयी थीं,
क्षिप्रा की वह क्षीण धार छू
सिहर गयी थीं।
मैंने अपने स्वागत में तब कितने हाथ जुड़े पाये थे।
मध्य मालवा, मध्य देश में
कितने खेत पड़े पाये थे।

कितने हलों, नागरों की तब
नोकें मेरे वक्ष गड़ी थीं।
कितनी सरिताएँ धनु की ढीली डोरी-सी क्षीण पड़ी थीं।
तालपत्र-सी धरती,
सूखी, दरकी, कबसे फटी हुई थी।
माँयें मुझे निहार रही थीं, वधुएँ मुझे पुकार रही थीं,
बीज मुझे ललकार रहे थे,
ऋतुएँ मुझे गुहार रही थीं।

मैंने शैशव की
निर्दोष आँख में तब पानी देखा था।
मुझे याद आया,
मैं ऐसी ही आँखों का कभी नमक था।
अब धरती से दूर हुआ
मैं आसमान का धब्बा भर था।

मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
तब से अब तक भटक रहा हूँ।
अब तक वैसे हाथ जुड़े हैं,
अब तक सूखे पेड़ खड़े हैं,
अब तक उजड़ी हैं खपरैलें,
अब तक प्यासे खेत पड़े हैं।
मैली-मैली सी संध्या में
झरते पलाश के पत्तों-से
धरती के सपने उजड़ रहे हैं।
मैं बादल, मेरे अंदर कितने ही बादल घुमड़ रहे हैं।
कितने आँसू टप, टप, टप
मेरी छाती पर टपक रहे हैं।
कितने उलाहने मन में मेरे
बिजली बन लपक रहे हैं।
अन्दर-ही-अन्दर मैं
कब से फफक रहा हूँ।
मेरे मन में आग लगी है
भभक रहा हूँ।
मैं सदियों के अंतराल में
वाष्प चक्र-सा घूम रहा हूँ।
बार-बार सूखी धरती का
रूखा मस्तक चूम रहा हूँ।
प्यास मिटा पाया कब इसकी
घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।

जिस पृथ्वी से जन्मा
उसे भुला दूँ
यह कैसे सम्भव है ?
पानी की जड़ है पृथ्वी में
बादल तो केवल पल्लव है।
मुझमें अंतर्द्वन्द्व छिड़ा है।
मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
तुमने जो दिखलाया मैंने
उससे कुछ ज़्यादा देखा है।
मैंने सदियों को मनुष्य की आँखों में घुलते देखा है।
मेरा मन भर आया है कवि,
अब न रुकूँगा।
अलका भूल चुकी मैं अब तो
इस धरती की प्यास हरूँगा।
सूखे पेड़ों, पौधों, अँकुओं की अब मौन पुकार सुनूँगा।
सुखी रहे तेरी अलका मैं
यहीं झरूँगा।
अगर मृत्यु भी मिली
मुझे तो
यहीं मरूँगा।
मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
मैं अब अलका जा न सकूँगा।
मुझे समय ने याद किया है
मैं ख़ुद को बहला न सकूँगा।
अब अँकुआये धान,
किसी कजरी में तुम मुझको पा लेना।
मैं नहीं हूँ कृतघ्न मुझे तुम शाप न देना!
मैं असाढ़ का पहला बादल
शताब्दियों के अंतराल में घूम रहा हूँ।
बार-बार सूखी धरती का रूखा मस्तक चूम रहा हूँ।