भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सवाल / मोहन राणा" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=मोहन राणा | |रचनाकार=मोहन राणा | ||
− | |संग्रह=पत्थर हो जाएगी | + | |संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदी / मोहन राणा |
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatKavita}} | |
+ | <poem> | ||
क्या यह पता सही है? | क्या यह पता सही है? | ||
− | |||
मैं कुछ सवाल करता | मैं कुछ सवाल करता | ||
− | |||
सच और भय की अटकलें लगाते | सच और भय की अटकलें लगाते | ||
− | |||
एक तितर-बितर समय के टुकड़ों को बीनता | एक तितर-बितर समय के टुकड़ों को बीनता | ||
− | |||
विस्मृति के झोले में | विस्मृति के झोले में | ||
− | |||
और वह बेमन देता जवाब | और वह बेमन देता जवाब | ||
− | |||
अपने काज में लगा | अपने काज में लगा | ||
− | |||
जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो | जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो | ||
− | |||
जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो | जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो | ||
− | |||
बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो | बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो | ||
− | |||
जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाऊंगा | जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाऊंगा | ||
− | |||
मैं सच को | मैं सच को | ||
− | |||
वह समझने वाली बाती नहीं | वह समझने वाली बाती नहीं | ||
− | |||
कि समझा सके कोई सच, | कि समझा सके कोई सच, | ||
− | |||
आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे | आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे | ||
− | |||
चलता इस उम्मीद में कि आगे कोई मोड़ ना हो | चलता इस उम्मीद में कि आगे कोई मोड़ ना हो | ||
− | |||
कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े | कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े | ||
− | |||
किधर जाता है यह रास्ता, | किधर जाता है यह रास्ता, | ||
− | |||
समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर | समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर | ||
− | |||
यही जान पाता कि सब-कुछ | यही जान पाता कि सब-कुछ | ||
− | |||
बस यह पल | बस यह पल | ||
− | |||
हमेशा अनुपस्थित | हमेशा अनुपस्थित | ||
− | + | '''रचनाकाल: 12.7. | |
− | + | </poem> | |
− | + | ||
− | 12.7. | + |
17:56, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
क्या यह पता सही है?
मैं कुछ सवाल करता
सच और भय की अटकलें लगाते
एक तितर-बितर समय के टुकड़ों को बीनता
विस्मृति के झोले में
और वह बेमन देता जवाब
अपने काज में लगा
जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो
जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो
बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो
जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाऊंगा
मैं सच को
वह समझने वाली बाती नहीं
कि समझा सके कोई सच,
आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे
चलता इस उम्मीद में कि आगे कोई मोड़ ना हो
कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े
किधर जाता है यह रास्ता,
समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर
यही जान पाता कि सब-कुछ
बस यह पल
हमेशा अनुपस्थित
रचनाकाल: 12.7.