Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=रमा द्विवेदी | |रचनाकार=रमा द्विवेदी | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatKavita}} | |
− | नारी तू जगजननी है,जगदात्री है, | + | <poem> |
− | तू दुर्गा है ,तू काली है, | + | नारी तू जगजननी है,जगदात्री है, |
− | तुझमें असीम शक्ति भंडार, | + | तू दुर्गा है ,तू काली है, |
− | फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय, | + | तुझमें असीम शक्ति भंडार, |
− | याद कर अपने अतीत को, | + | फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय, |
− | तोड कर रूढियों- | + | याद कर अपने अतीत को, |
− | बंधनों एवं परम्पराओं को. | + | तोड कर रूढियों- |
− | आंख खोल कर देख, | + | बंधनों एवं परम्पराओं को. |
− | दुनिया का नक्शा , | + | आंख खोल कर देख, |
− | कुछ सीख ले, | + | दुनिया का नक्शा , |
− | वर्ना पछ्तायेगी, | + | कुछ सीख ले, |
− | तू सदियों पीछे, | + | वर्ना पछ्तायेगी, |
− | पहुंचा दी जायेगी । | + | तू सदियों पीछे, |
− | तू क्यों पुरूष के हाथ की, | + | पहुंचा दी जायेगी । |
− | कठपुतली बन शोषित होती है? | + | तू क्यों पुरूष के हाथ की, |
− | तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन | + | कठपुतली बन शोषित होती है? |
− | तू क्यों भोग्या समर्पिता बनती है? | + | तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन |
− | यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं, | + | तू क्यों भोग्या समर्पिता बनती है? |
− | सब तूने ही है दिया उसे, | + | यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं, |
− | वही तुझे आज शोषित कर, | + | सब तूने ही है दिया उसे, |
− | अन्याय और अत्याचार कर, | + | वही तुझे आज शोषित कर, |
− | तुझे विवश करता है, | + | अन्याय और अत्याचार कर, |
− | अस्मिता बेचने के लिए, | + | तुझे विवश करता है, |
− | और तू निर्बल बन, | + | अस्मिता बेचने के लिए, |
− | घुटने टेक देती है । | + | और तू निर्बल बन, |
− | क्यों??? | + | घुटने टेक देती है । |
− | क्या तू इतनी निर्बल है? | + | क्यों??? |
− | अगर ऎसा है- | + | क्या तू इतनी निर्बल है? |
− | तो घर में ही बैठो, | + | अगर ऎसा है- |
− | बाहर निकलने की- | + | तो घर में ही बैठो, |
− | जरूरत नहीं, | + | बाहर निकलने की- |
− | पर यह मत भूलो कि- | + | जरूरत नहीं, |
− | घर में भी तेरा शोषण होगा ही | + | पर यह मत भूलो कि- |
− | फर्क होगा सिर्फ़ , | + | घर में भी तेरा शोषण होगा ही |
− | हथियारों के इस्तेमाल में । | + | फर्क होगा सिर्फ़ , |
− | तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं- | + | हथियारों के इस्तेमाल में । |
− | किसके लिए? | + | तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं- |
− | अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की, | + | किसके लिए? |
− | रक्षा के लिए, | + | अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की, |
− | या | + | रक्षा के लिए, |
− | दूसरो के लिए? | + | या |
− | सोच ले तू कहां है? | + | दूसरो के लिए? |
− | सब कुछ देकर, | + | सोच ले तू कहां है? |
− | तेरे पास अपना, | + | सब कुछ देकर, |
− | क्या बचा है? | + | तेरे पास अपना, |
− | कुछ पाने के लिए संघर्ष कर । | + | क्या बचा है? |
− | भौतिक सुखों को त्याग कर, | + | कुछ पाने के लिए संघर्ष कर । |
− | नर-पाश्विकता से जूझ कर, | + | भौतिक सुखों को त्याग कर, |
− | स्वयं अपने पथ का निर्माण कर, | + | नर-पाश्विकता से जूझ कर, |
− | अपनी योग्यता से आगे बढ. । | + | स्वयं अपने पथ का निर्माण कर, |
− | मत सह पुरूष के अत्याचार, | + | अपनी योग्यता से आगे बढ. । |
− | द्ढ संकल्प लेकर, | + | मत सह पुरूष के अत्याचार, |
− | बढ जा जीवन पथ पर, | + | द्ढ संकल्प लेकर, |
− | निराश न हो, | + | बढ जा जीवन पथ पर, |
− | घबरा कर कर्म पथ से, | + | निराश न हो, |
− | विचलित न हो, | + | घबरा कर कर्म पथ से, |
− | तू अडिग रह, अटल रह, | + | विचलित न हो, |
− | अपने लक्ष्य पर, | + | तू अडिग रह, अटल रह, |
− | तेरी विजय निश्चित है । | + | अपने लक्ष्य पर, |
− | तू अपनी "पहचान" को, | + | तेरी विजय निश्चित है । |
− | विवशता का रूप न दे, | + | तू अपनी "पहचान" को, |
− | वर्ना नर भेडि़ए तुझे, | + | विवशता का रूप न दे, |
− | समूचा ही निगल जाएंगे । | + | वर्ना नर भेडि़ए तुझे, |
− | खोकर अपनी अस्मिता को, | + | समूचा ही निगल जाएंगे । |
− | कुछ पा लेना , | + | खोकर अपनी अस्मिता को, |
− | जीवन की सार्थकता नहीं, | + | कुछ पा लेना , |
− | आत्म ग्लानि तुझे, | + | जीवन की सार्थकता नहीं, |
− | नर्काग्नि में जलायेगी । | + | आत्म ग्लानि तुझे, |
− | इसलिए तू सजग हो जा, | + | नर्काग्नि में जलायेगी । |
− | तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी, | + | इसलिए तू सजग हो जा, |
− | विजय लक्ष्मी बन, | + | तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी, |
− | कर्म में प्रवत्त हो, | + | विजय लक्ष्मी बन, |
− | अपने लक्ष्य तक पहुंच | + | कर्म में प्रवत्त हो, |
− | पुरूष के पशु को पराजित कर, | + | अपने लक्ष्य तक पहुंच |
− | स्वयं की महत्ता उदघाटित कर, | + | पुरूष के पशु को पराजित कर, |
− | इसी में तेरे जीवन की, | + | स्वयं की महत्ता उदघाटित कर, |
− | सार्थकता है, | + | इसी में तेरे जीवन की, |
− | और | + | सार्थकता है, |
− | जीवन की महान उपलब्धि भी< | + | और |
+ | जीवन की महान उपलब्धि भी | ||
+ | </poem> |
20:50, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
नारी तू जगजननी है,जगदात्री है,
तू दुर्गा है ,तू काली है,
तुझमें असीम शक्ति भंडार,
फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय,
याद कर अपने अतीत को,
तोड कर रूढियों-
बंधनों एवं परम्पराओं को.
आंख खोल कर देख,
दुनिया का नक्शा ,
कुछ सीख ले,
वर्ना पछ्तायेगी,
तू सदियों पीछे,
पहुंचा दी जायेगी ।
तू क्यों पुरूष के हाथ की,
कठपुतली बन शोषित होती है?
तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन
तू क्यों भोग्या समर्पिता बनती है?
यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं,
सब तूने ही है दिया उसे,
वही तुझे आज शोषित कर,
अन्याय और अत्याचार कर,
तुझे विवश करता है,
अस्मिता बेचने के लिए,
और तू निर्बल बन,
घुटने टेक देती है ।
क्यों???
क्या तू इतनी निर्बल है?
अगर ऎसा है-
तो घर में ही बैठो,
बाहर निकलने की-
जरूरत नहीं,
पर यह मत भूलो कि-
घर में भी तेरा शोषण होगा ही
फर्क होगा सिर्फ़ ,
हथियारों के इस्तेमाल में ।
तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं-
किसके लिए?
अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की,
रक्षा के लिए,
या
दूसरो के लिए?
सोच ले तू कहां है?
सब कुछ देकर,
तेरे पास अपना,
क्या बचा है?
कुछ पाने के लिए संघर्ष कर ।
भौतिक सुखों को त्याग कर,
नर-पाश्विकता से जूझ कर,
स्वयं अपने पथ का निर्माण कर,
अपनी योग्यता से आगे बढ. ।
मत सह पुरूष के अत्याचार,
द्ढ संकल्प लेकर,
बढ जा जीवन पथ पर,
निराश न हो,
घबरा कर कर्म पथ से,
विचलित न हो,
तू अडिग रह, अटल रह,
अपने लक्ष्य पर,
तेरी विजय निश्चित है ।
तू अपनी "पहचान" को,
विवशता का रूप न दे,
वर्ना नर भेडि़ए तुझे,
समूचा ही निगल जाएंगे ।
खोकर अपनी अस्मिता को,
कुछ पा लेना ,
जीवन की सार्थकता नहीं,
आत्म ग्लानि तुझे,
नर्काग्नि में जलायेगी ।
इसलिए तू सजग हो जा,
तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी,
विजय लक्ष्मी बन,
कर्म में प्रवत्त हो,
अपने लक्ष्य तक पहुंच
पुरूष के पशु को पराजित कर,
स्वयं की महत्ता उदघाटित कर,
इसी में तेरे जीवन की,
सार्थकता है,
और
जीवन की महान उपलब्धि भी