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22:20, 28 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण
पिछली बरसात बारिश हमारे खेतों तक नहीं पहुँची।
हमने मेढक-मेढकी का ब्याह रचाया।
याद है न मेढक नव दम्पति का खेतों से गुज़रना,
उछाह में उछलते-कूदते, जाना
दूर दिगन्त में ठहरे काले बादलों की ओर?
उन बादलों की गरज हम तक नहीं पहुँची, क्योंकि
वे हमारे आकाश में नहीं थे।
हमारी योजनाओं के मसौदों में
(और आँकड़ों में)
गड़बड़ी हो गई थी।
मेढक दम्पति हनीमून को चले तो
हमने प्रार्थना की,
मेढक वधू सहस्र-प्रसवा हो।
आज बादल घिर आए।
सुन रहे हो न आकाश में उनका गर्जन?
ज्योतिषी ने कहा है, इस बार इतना पानी होगा
जितना कभी न हुआ।
इस समय पहले कभी न सुनी-सी गर्जना
सुन रहे हैं हम।
देखो, आ गया पानी,
मानो ओले पड़ रहे हों।
छतों, रास्तों, खेतों से
ओले गिरने-सी आवाज़ आती है।
लैकिन नहीं,
बेंग-वर्षा हो रही है। हमारी प्रार्थना के प्रभाव से
मेढक वधू सहस्र-प्रसवा मेढकी माता बनी है।
बादलों के प्रसव-कक्ष में सेये
परस्पर चिपके अण्डों के पिण्डों से
हज़ार हज़ार मेढक शिशु
उतर रहे हैं
बेंग-वर्षा की शक्ल में।
इनकी ज़बानों पर योजनाओं का नया मसौदा है
और नए आँकड़े।
हम बेंगछाते<ref>कुकुरमुत्ता</ref> का छाता सिर पर ताने
नई घोषणा सुनने को प्रस्तुत हैं।
महामण्डूक की महानिद्रा के कारण
हमारे लिए मसौदा बनाया है कूपमण्डूक ने।
उसे याद करता है
मन्त्र की तरह रटते हुए,
बेंगुचा।
हमारे सिरों पर तने बेंगछाते
फट जाते हैं सशब्द।
बेंग-वृष्टि हो रही है।
क्षत-विक्षत हम भीग रहे हैं।
[डाक्टर के यहाँ अपनी बारी का इन्तज़ार करते हुए,
हरेकृष्ण डेका की कविता : ’बेङ् बरखून’ का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित