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परम्परा औ’ परिपाटी में। | परम्परा औ’ परिपाटी में। | ||
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11:32, 13 जनवरी 2010 के समय का अवतरण
कुछ भी तो अब
तन्त नहीं है-
ऊपरवाले की लाठी में।
दीमक चाट गयी है शायद-
ये भी ऊपरवाला जाने,
भुस में तिनगी जिसने डाली-
वही जमालो खाला जाने।
हम तो खड़े हुए हैं
घर के
पानीपत हल्दीघाटी में।
दो ही दिन में बासी
लगने लगते हैं परिवर्तन
प्रगतिशील होकर आते
घर-घर में अब ऋण।
अपने को
रूँधा कुम्हार सा,
कस ही नहीं रहा माटी में।
श्रृद्धापक्ष ही नहीं, किन्तु अब
उनकी बारहमास छन रही,
पात्र-कुपात्र न देखे भन्ते !
कच्ची, क्वाँरी कोख जन रही।
तेल नहीं रह गया
हमारी
परम्परा औ’ परिपाटी में।