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− | |रचनाकार=कुमार मुकुल
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− | क्या
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− | हर प्यार करने वाले से
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− | शादी करनी होगी मुझे
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− | पूछती है-- उर्सुला
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− | और भाग खड़ी होती है
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− | विन्सेंट को पुकारती
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− | लाल सिर वाला बेवकूफ़
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− | सुबहें होती आई हैं
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− | शबनम से नम
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− | और आग से भरी हुईं
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− | हमेशा से
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− | और शामें
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− | उदास-ख़ूबसूरत
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− | ग़ुलाम हो चुकी भाषा के व्याकरण को
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− | अपनी बेहिसाब जिरहों से लाजवाब करता
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− | मिटटी की परतें तोड़
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− | फेंकता अंकुर आज़ाद
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− | कि ख़ब्तख़याली के
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− | टकटकी बांधता, खिलखिलाता, भागता
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− | बदहवास
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− | बिखरती लटें संवारता, चुंबनों से
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− | दुपट्टों से पसीना पोंछता
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− | आता है प्यार -
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− | चूजे-सा पर तोलता
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− | भरता आशंकाओं से
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− | कि उसकी रक्षा या हत्या को
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− | आतुर हो उठते हम
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− | कि बाज-बखत
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− | खड़ी करनी चाहते दीवार
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− | उसे बचाने की
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− | दुनियावी जद्दो-जहद से
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− | इससे गाफ़िल कि वह ख़ुद
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− | एक बुलन्द निगाह है -
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− | दरो-दीवार को भेदती - फिर
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− | अन्तत: चूक कर
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− | दुहराते हैं हम - प्यार
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− | और दुश्वार करते हैं जीना
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− | और टूटता है एक सपना
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− | नींद में जागे का।
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− | हर विंसेंट की
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− | एक उर्सुला होती है
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− | उसे दीवाना-मुँहफट-सिरफिरा कह
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− | उसके मुँह पर किवाड़ भेड़ती
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− | और होता है वह
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− | एक विन्सेंट ही
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− | ख़्याल को सनम समझता
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− | ख़ुद को
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− | ख़्याल से भी कम समझता
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− | प्रतीज्ञाएँ करता-तोडता
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− | महान मूर्खताओं से चिढ़ता-चिढ़ाता उन्हें मुँह
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− | भटकाता ख़ुद को दर-ब-दर
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− | रहने और खाने की व्यवस्था पर
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− | अध्यापक मिल जाते हैं हमेशा से
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− | और आज भी
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− | फिर क्या चाहिए था विन्सेंट को
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− | याद करने के पैसे तो नहीं लगते
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− | यादें तो बस
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− | जीवन मांगती हैं
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− | एक निगाह में
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− | एक बैठती आह में
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− | बिखरता जीवन।
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− | इजाडोरा कहती है -
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− | प्रेम
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− | शरीर की नहीं
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− | आत्मा की बीमारी है
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− | यह ज्वर
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− | जला डालता है सारे कलुष
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− | प्रेमी बन जाते हैं
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− | योद्धा-पादरी-शिक्षक
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− | यह ज्वर भर जाता है
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− | आँखों में चमक
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− | भाषा में खुनक
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− | फिर तमाम विन्सेंटों के भीतर
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− | उनकी उर्सुलाएं जाग पड़ती हैं
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− | बोलने लगते हैं वो
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− | महान प्रार्थनाएं प्रयाण-गीत पाठ
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− | दुनिया के क्रूरतम तानाशाह भी
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− | अपने भीतर समेटते रहते हैं
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− | एक बिखरती उर्सुला
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− | कभी-कभी ज्वर टूटता है
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− | तब तक देर हो चुकी होती है
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− | सच्ची जिदें
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− | बदल चुकी होती हैं
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− | झूठी सनकों में
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− | उर्सुला को बचाने की ज़िद्द में वो
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− | मार चुके होते हैं
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− | अपने अंदर की उर्सुला को ही
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− | जीवनानंद में नाचती
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− | नीली आँखों का प्रकाश थी उर्सुला
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− | विन्सेंट के लिए
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− | उन कुछेक शामों-सुबहों की तरह
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− | जो होते-बीतते
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− | बैठ जाती हैं चुपके से भीतर
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− | फिर जब दुनिया का मायावी प्रकाश
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− | चौंधियाता है हमें
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− | तो खो जाते हैं हम
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− | कहीं भीतर दुबके
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− | प्रकाश-पल की तलाश में
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− | टिमटिमाता रहता है जो-- अविच्छिन्न
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− | एक टीस की तरह
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− | कि उन प्रकाश-पलों को फिर-फिर
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− | बदला नहीं जा सकता
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− | सुबहों व शामों के प्रकाशवृत्तों में
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− | विन्सेंट याद करता है-- ईसा को
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− | कि हरेक चीज़ मिल जाती है
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− | किसी भी क़िताब से
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− | ज़्यादा सम्पूर्ण और सुन्दर रूप में
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− | कि कोई भी दुख
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− | बिना उम्मीद के नहीं आता
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− | हाँ
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− | सचमुच की उर्सुला जब
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− | खो जाती है कहीं
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− | ज़िन्दगी की क़िताब में
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− | तब
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− | जीवित होने लगती है वह
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− | विन्सेंट के लहू में-
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− | निगाह में उसकी
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− | उसके इशारों में-
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− | फिर-फिर
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− | रची जा रही होती है वह कैनवसों पर
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− | मिथ्या आवरणों के भीतर
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− | अपने मूल से भी
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− | खरे रूप में।
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