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"संसद में संसद / कुबेरदत्त" के अवतरणों में अंतर

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संसदी चँगेज़ के ख़ूनी जमूरे
 
संसदी चँगेज़ के ख़ूनी जमूरे

17:42, 10 सितम्बर 2017 के समय का अवतरण

1

संसद में बिकी संसद टके सेर
राजपथ पर सुलभ सारे हेर-फेर
बिना मूल्य बिके मूल्य टके सेर
संसद में बिकी संसद टके सेर।

भाजपा जपा इंका तिंका
जद फद, जदस फदस
अगप सकप
सपा बसपा
लुक छिप सरे-आम
                बिना दाम
                लुट रहे टके सेर
संसद में बिकी संसद टके सेर।

2

कीचड़ मल सने राजकाज
हत्या हथियारों के व्यापारी
                लूट चके शर्म लाज
मादर
बिरादर तक सत्ता के
दरबदर घूम रहे —
                सत्ता के अपने ही गलियारे
                त्राहि-त्राहि रहे टेर
संसद में बिकी संसद टके सेर।

3

भाषण पर भाषण देता है दुःशासन
अनुशासन की चीर जांघ
सजा-धजा हत्यासन
कविचारण, कलावन्त, पत्रकार,
                                कलाकार
भाट रचनाकार करते
                                संकीर्तन
द्रौपदी का चीरहरण फिर जारी
वृहन्नला बने खड़े हैं —
जबर-बबर-रबर-शेर
संसद में बिकी संसद टके सेर।

4

जनता को
गाय-वाय
भेड़-भूड़
बकरी या ठेठ मूढ़
समझे हैं सदियों से
                धवल वस्त्रधारी पिण्डारी
भाषा के आखेटक,
नियमों-अधिनियमों के
                नादिरी बहेलिए
हाड़-माँस नगर-गाँव
इनसानी हाथ-पाँव एक साथ खाते जो
                सभ्यता चबाते जो
मूल, सूद, पंचायत, पालिका, जिला, प्रान्त...
देश-द्वीप-महाद्वीपखोर
ग्लोब की नसों पर, चिपके हैं —
                                जोंक से...
बारूदी, रक्तबुझी, स्वर्णतुला
तौल रही देश-दुनिया
संसदी चंगेज मुखरित हैं, मगन हैं
मगन उनके धूर्त, हिंसक पुतुल-सर्कस
संसदी चँगेज के गुण्डे बजाते तालियाँ हैं
राम-महिमा के निकट ही
दाम-महिमा का हरम है
गरम है, ख़ासा गरम है
शासनी बन्दूक के घोड़े के पीछे —
                                                राम-रथ के,
                रोज़ की तनख़ा-ख़रीदे
                खच्चरी घोड़े खड़े हैं
उनके पीछे
क्रूर चेहरे
न्याय, समता की नटी की
ओढ़नी ओढ़े खड़े हैं
पोस्टर पर पोस्टर पर पोस्टर है
शब्दकोषों की धुनाई चल रही है
जन-लहू की
उन को बट कर
बुनाई चल रही है
हर अन्धेरा मुँह छिपाए
                                भागता है —
                देखकर यह
                ख़ून से तर-बतर अजब अंधेर
संसद में बिकी संसद टके सेर।

5

संसदी चँगेज़ के ख़ूनी जमूरे
औरतों, मज़दूर, बच्चों को, किसानों को
दफ़्तरों, सड़कों, मुहल्लों को
कारख़ानों, मदरसों को
खेत को, खलिहान को
रायफ़ल की नोक पर टाँगे खड़े हैं...
पेटियाँ मत की हुईं तैयार
हुलसते हैं सेठ-साहूकार
लो,
उधर सुविधा-सलौने
                                उर्फ़ बौने
बिके, सत्ता-सिंके वे सब पत्रकार
झूठ की रपटें बनाने में जुटे हैं,
पत्रकारी के सभी आदर्श —
                स्वर्ण बिस्कुट
                मोद-मदिरा से पिटे हैं
                                स्वेच्छा से, लुटे हैं,
खौफ़ के मँज़र हैं या
जम्हूरियत के ख़ाक पिंजर
रोज़ टी० वी० पर दिखाए जा रहे हैं
ख़ून पीते
ग्लोब भर का नून खाते, चून खाते
                                                संसदी चँगेज़
                रोज़ टी० वी० पर दिखाए जा रहे हैं
आदमी से आदमी तक
खिंच रही है बोल-भाषा की दीवार
इस सदी से दूसरी में
हो रही दाख़िल
गुनाहों की मीनार...
कालिमा की
किंगडम का बनैला अन्धेर...
संसद में बिकी संसद टके सेर।