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"गोबर पवित्र / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर

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हटो, थोड़ा श्रम भी करो माते
 
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10:54, 27 जून 2008 के समय का अवतरण

(`कुछ भी खाकर करती है गोबर पवित्र´ -प्रेमरंजन अनिमेष की इस कविता-पंक्ति को पढ़कर)


दिल्ली में या हैदराबाद में

बहुत सम्मान है गायों का

पतियों की व्यस्ता से ऊबी स्त्रियों की

साथिन हैं, वही

उन्हें अपने हिस्से की पूरी-मिठाई खिलातीं

बतियातीं-मनुहार करतीं वे


चलो हटो माते, द्वार से अब

बच्चे आने को हैं

हटो, थोड़ा श्रम भी करो माते

कि द्वार-द्वार खाकर भैंस हो रही हो

बहुत कुछ सड़क पर भी है

पोली पैक

थोड़ा उधर भी मुँह मारो


अरे-रे छि: छि:

यह क्या किया माते

चिपचिपी कुत्ते के गूँ सी

बास मारती विष्ठा

ओह, माते

तुम तो अपने कर्तव्य भी भूल रही हो

`गोबर पवित्र´ किया करो माते

`कुछ भी खाकर´।