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"जीवंत प्रकृति / लावण्या शाह" के अवतरणों में अंतर

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खिले कँवल से, लदे ताल पर,
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मँडराता मधुकर~ मधु का लोभी.
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गुँजित पुरवाई, बहती प्रतिक्षण
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|रचनाकार=लावण्या शाह
चपल लहर, हँस, सँग ~ सँग,
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हो, ली !
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खिले कँवल से, लदे ताल पर,<br>
एक बदलीने झुक कर पूछा,
+
मँडराता मधुकर~ मधु का लोभी.<br>
"ओ, मधुकर, तू ,
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गुँजित पुरवाई, बहती प्रतिक्षण<br>
गुनगुन क्या गाये?
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चपल लहर, हँस, सँग ~ सँग,<br>
"छपक छप -
+
हो, ली !<br>
मार कुलाँचे,मछलियाँ,
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एक बदलीने झुक कर पूछा,<br>
कँवल पत्र मेँ,
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"ओ, मधुकर, तू ,<br>
छिप छिप जायेँ !
+
गुनगुन क्या गाये?<br>
"हँसा मधुप, रस का वो लोभी,
+
"छपक छप -<br>
बोला,
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मार कुलाँचे,मछलियाँ,<br>
" कर दो, छाया,बदली रानी !
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कँवल पत्र मेँ,<br>
मैँ भी छिप जाऊँ,
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छिप छिप जायेँ !<br>
कँवल जाल मेँ,
+
"हँसा मधुप, रस का वो लोभी,<br>
प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !"
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बोला,<br>
" रे धूर्त भ्रमर,
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" कर दो, छाया,बदली रानी !<br>
तू,रस का लोभी --
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मैँ भी छिप जाऊँ,<br>
फूल फूल मँडराता निस दिन,
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कँवल जाल मेँ,<br>
माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ?
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प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !"<br>
गरज रहे घन -
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" रे धूर्त भ्रमर,<br>
ना मैँ तेरी सहेली!"
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तू,रस का लोभी --<br>
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फूल फूल मँडराता निस दिन,<br>
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माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ?<br>
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गरज रहे घन -<br>
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ना मैँ तेरी सहेली!"<br><br>
  
टप, टप, बूँदोँ ने
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टप, टप, बूँदोँ ने<br>
बाग ताल, उपवन पर,
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बाग ताल, उपवन पर,<br>
तृण पर, बन पर,
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तृण पर, बन पर,<br>
धरती के कण क़ण पर,
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धरती के कण क़ण पर,<br>
अमृत रस बरसाया -
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अमृत रस बरसाया -<br>
निज कोष लुटाया !
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निज कोष लुटाया !<br><br>
  
अब लो, बरखा आई,
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अब लो, बरखा आई,<br>
हरितमा छाई !
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हरितमा छाई !<br>
आज कँवल मेँ कैद
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आज कँवल मेँ कैद<br>
मकरँद की, सुन लो
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मकरँद की, सुन लो<br>
प्रणय ~ पाश मेँ बँधकर,
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प्रणय ~ पाश मेँ बँधकर,<br>
 
हो गई, सगाई !!
 
हो गई, सगाई !!

23:53, 28 जून 2008 के समय का अवतरण

खिले कँवल से, लदे ताल पर,
मँडराता मधुकर~ मधु का लोभी.
गुँजित पुरवाई, बहती प्रतिक्षण
चपल लहर, हँस, सँग ~ सँग,
हो, ली !
एक बदलीने झुक कर पूछा,
"ओ, मधुकर, तू ,
गुनगुन क्या गाये?
"छपक छप -
मार कुलाँचे,मछलियाँ,
कँवल पत्र मेँ,
छिप छिप जायेँ !
"हँसा मधुप, रस का वो लोभी,
बोला,
" कर दो, छाया,बदली रानी !
मैँ भी छिप जाऊँ,
कँवल जाल मेँ,
प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !"
" रे धूर्त भ्रमर,
तू,रस का लोभी --
फूल फूल मँडराता निस दिन,
माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ?
गरज रहे घन -
ना मैँ तेरी सहेली!"

टप, टप, बूँदोँ ने
बाग ताल, उपवन पर,
तृण पर, बन पर,
धरती के कण क़ण पर,
अमृत रस बरसाया -
निज कोष लुटाया !

अब लो, बरखा आई,
हरितमा छाई !
आज कँवल मेँ कैद
मकरँद की, सुन लो
प्रणय ~ पाश मेँ बँधकर,
हो गई, सगाई !!