"पत्थर के आँसू-2 / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
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− | चरणों पर मेरे बहुत मस्तक झुक रहे थे | + | चरणों पर मेरे बहुत मस्तक झुक रहे थे |
गर्वित, विस्मित था, मुझे सब पूज रहे थे | गर्वित, विस्मित था, मुझे सब पूज रहे थे | ||
− | परन्तु, सब याचक थे यह क्या? | + | परन्तु, सब याचक थे यह क्या? |
भूखा अधनंगा शैशव कभी आया | भूखा अधनंगा शैशव कभी आया | ||
− | + | रोकर रोटी का टुकड़ा माँग रहा था | |
− | क्रन्दन करता यौवन आया झुका माथा | + | क्रन्दन करता यौवन आया झुका माथा |
− | मुझसे | + | मुझसे माँग रहा था जीविकोपार्जन |
आया अपनी सन्तान से एक बूढ़ा शोषित | आया अपनी सन्तान से एक बूढ़ा शोषित | ||
− | फिर भी | + | फिर भी माँग रहा था उनके लिए धन |
और अपने लिए थोड़ा सा जीवन | और अपने लिए थोड़ा सा जीवन | ||
तभी एक स्त्री आई बिलखती | तभी एक स्त्री आई बिलखती | ||
− | दौड़ती हुई मुझे धिक्कारती | + | दौड़ती हुई मुझे धिक्कारती |
− | तुम्हारा है कैसा है प्रभु यह संसार | + | तुम्हारा है कैसा है प्रभु यह संसार |
− | मैं सशक्त तथापि दीन-हीन और लाचार | + | मैं सशक्त तथापि दीन-हीन और लाचार |
− | तुम से निर्मित पुरुष द्वारा हे! पाषाण-परमेश्वर | + | तुम से निर्मित पुरुष द्वारा हे! पाषाण-परमेश्वर |
− | निशि-दिवस मेरा यह कैसा घृणित तिरस्कार | + | निशि-दिवस मेरा यह कैसा घृणित तिरस्कार |
न मेरा अपना शैशव था कोई | न मेरा अपना शैशव था कोई | ||
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अपने लिए निर्लोभ, नहीं कुछ सँजोया | अपने लिए निर्लोभ, नहीं कुछ सँजोया | ||
− | तेरे समक्ष अधरों ने नित पिता, भाई, बेटा, | + | तेरे समक्ष अधरों ने नित पिता, भाई, बेटा, |
और मेरा पति-परमेश्वर ही बुदबुदाया | और मेरा पति-परमेश्वर ही बुदबुदाया | ||
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− | और मेरा और मेरी स्त्री संतान का शोषण, | + | और मेरा और मेरी स्त्री संतान का शोषण, |
डोलता अस्तित्व, चुनौती-भरा कंटक-जीवन | डोलता अस्तित्व, चुनौती-भरा कंटक-जीवन | ||
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कर सकोगे मुझ पर उपकार तुम क्या | कर सकोगे मुझ पर उपकार तुम क्या | ||
− | राम तूने स्वयं ही किया शोषण पत्नी का | + | राम तूने स्वयं ही किया शोषण पत्नी का |
− | मेरे आँसू से तुझे होगी पीड़ा क्या? | + | मेरे आँसू से तुझे होगी पीड़ा क्या? |
जब जानकी को तूने फूट-फूट रुलाया | जब जानकी को तूने फूट-फूट रुलाया | ||
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परन्तु रोया बहुत मेरा भी मन | परन्तु रोया बहुत मेरा भी मन | ||
− | शंकित लज्जित था अपने ईश्वर होने पर | + | शंकित लज्जित था अपने ईश्वर होने पर |
− | और अनुभव ही नहीं कर पाया | + | और अनुभव ही नहीं कर पाया |
कब बह निकले मुझ मूक-बधिर ‘पत्थर के आँसू’ | कब बह निकले मुझ मूक-बधिर ‘पत्थर के आँसू’ | ||
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13:00, 3 अप्रैल 2022 के समय का अवतरण
चरणों पर मेरे बहुत मस्तक झुक रहे थे
गर्वित, विस्मित था, मुझे सब पूज रहे थे
परन्तु, सब याचक थे यह क्या?
भूखा अधनंगा शैशव कभी आया
रोकर रोटी का टुकड़ा माँग रहा था
क्रन्दन करता यौवन आया झुका माथा
मुझसे माँग रहा था जीविकोपार्जन
आया अपनी सन्तान से एक बूढ़ा शोषित
फिर भी माँग रहा था उनके लिए धन
और अपने लिए थोड़ा सा जीवन
तभी एक स्त्री आई बिलखती
दौड़ती हुई मुझे धिक्कारती
तुम्हारा है कैसा है प्रभु यह संसार
मैं सशक्त तथापि दीन-हीन और लाचार
तुम से निर्मित पुरुष द्वारा हे! पाषाण-परमेश्वर
निशि-दिवस मेरा यह कैसा घृणित तिरस्कार
न मेरा अपना शैशव था कोई
वैरी यौवन में भी मैं यों ही रोई
मैंने जीवन भर सब नातों को ढोया
अपने लिए निर्लोभ, नहीं कुछ सँजोया
तेरे समक्ष अधरों ने नित पिता, भाई, बेटा,
और मेरा पति-परमेश्वर ही बुदबुदाया
हाय! तेरी यह विकृत सृष्टि पालनहार
क्या तूने मात्र उन्हें ही सौंपा यह संसार
और मेरा और मेरी स्त्री संतान का शोषण,
डोलता अस्तित्व, चुनौती-भरा कंटक-जीवन
अंकुरण होने के पूर्व ही मरने का रुदन
ओह! क्रूर भगवान तू भी क्या भगवान?
कर सकोगे मुझ पर उपकार तुम क्या
राम तूने स्वयं ही किया शोषण पत्नी का
मेरे आँसू से तुझे होगी पीड़ा क्या?
जब जानकी को तूने फूट-फूट रुलाया
वह कोसती जा रही थी, अस्तित्व मेरा
किन्तु मैं क्या कर पाता, बस चुप था
क्योंकि मैं भी मानव निर्मित था
क्योंकि विवश और अस्थिर था
परन्तु रोया बहुत मेरा भी मन
शंकित लज्जित था अपने ईश्वर होने पर
और अनुभव ही नहीं कर पाया
कब बह निकले मुझ मूक-बधिर ‘पत्थर के आँसू’