"दो पल अवकाश के / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
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− | + | एक-दूसरे से नैना उलझाए, | |
+ | दो एकाकी हृदयों की ध्वनियों को, | ||
+ | मिलकर गले लिपटने दें, | ||
+ | यदि मिले तुम्हें अवकाश के क्षण, | ||
+ | तो आओ मिलकर बैठें दो पल। | ||
+ | अविरल चलती भौतिक यात्रा को, | ||
+ | कुछ क्षण अल्प विराम दे दें। | ||
+ | निज मन में उठते भावों को, | ||
+ | शब्द ध्वनि में परिवर्तित कर, | ||
+ | स्वयं को व्यक्त करें दो पल। | ||
+ | मशीनों के इस कालखण्ड में, | ||
+ | हम भी मशीन जैसे ही हो गए, | ||
+ | बिन अपनत्व मधुर रिश्तों के, | ||
+ | जंग लग गया है हम में। | ||
− | + | चमचमाते अर्थविषयी युग में, | |
+ | तुम्हें शान्ति न अवकाश हमें, | ||
+ | मन-मस्तिष्क-शरीर को, | ||
+ | प्रेम का नया तेल देकर, | ||
+ | एक नई स्फूर्ति-स्निग्धता प्रदान करें दो पल। | ||
+ | जाने कब फिर मिलना संग चलना हो, | ||
+ | एक अल्पावधि वाले मिलन-पश्चात्, | ||
+ | एक दीर्घकालीन विलम्ब-वियोग, | ||
+ | आओं नैनों की भाषा को, | ||
+ | नए सम्बल देकर आलाप करें दो पल। | ||
+ | ओ प्रिय! इस मधुर स्पर्श को, | ||
+ | हम सदियों से चाह रहे थे, | ||
+ | जड़वत् जीवन है वर्षों से, | ||
+ | पाषाणवत् मन-मस्तिष्क शरीर, | ||
+ | काया-मन-आत्मा का संगम होने दें दो पल। | ||
+ | न वह सरसता न सरलता | ||
+ | न स्वाभाविकता बातों की रही | ||
+ | मात्र स्वार्थयुक्तता की जटिलता | ||
+ | पिछले कई युगों से चल निकली | ||
− | + | निहार रही थी तीव्र पुतलियाँ | |
+ | राह कई सदियों से तुम्हारी | ||
+ | मनों की मधुर अठखेलियाँ | ||
+ | चाह रही थी संगत तुम्हारी | ||
+ | यह स्वर्ण शृंखला गूंथें दो पल। | ||
+ | आँचल का एक छोर बँधा है | ||
+ | रिश्तों की परिभाषा में | ||
+ | एक नया रिश्ता हम गूँथ रहे हैं | ||
+ | पाने को मन की थाहें | ||
+ | अस्तित्वों को परिभाषित करें दो पल। | ||
− | + | आशाएँ निमिषों में भरकर | |
+ | अंजुलियों से बाँटी हमने, | ||
+ | सुख के कुछ चंचल क्षण | ||
+ | जी भरकर लुटाए हमने | ||
− | + | किंतु अब अपनी पारी में | |
+ | क्या आशाएँ समाप्त हो गईं ? | ||
+ | कहाँ गई सकारात्मकता की अनुभूति? | ||
+ | और सद्गुणों का दिग्दर्शन कहाँ गया? | ||
+ | इनको भी उगने दें दो पल। | ||
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08:05, 14 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
एक-दूसरे से नैना उलझाए,
दो एकाकी हृदयों की ध्वनियों को,
मिलकर गले लिपटने दें,
यदि मिले तुम्हें अवकाश के क्षण,
तो आओ मिलकर बैठें दो पल।
अविरल चलती भौतिक यात्रा को,
कुछ क्षण अल्प विराम दे दें।
निज मन में उठते भावों को,
शब्द ध्वनि में परिवर्तित कर,
स्वयं को व्यक्त करें दो पल।
मशीनों के इस कालखण्ड में,
हम भी मशीन जैसे ही हो गए,
बिन अपनत्व मधुर रिश्तों के,
जंग लग गया है हम में।
चमचमाते अर्थविषयी युग में,
तुम्हें शान्ति न अवकाश हमें,
मन-मस्तिष्क-शरीर को,
प्रेम का नया तेल देकर,
एक नई स्फूर्ति-स्निग्धता प्रदान करें दो पल।
जाने कब फिर मिलना संग चलना हो,
एक अल्पावधि वाले मिलन-पश्चात्,
एक दीर्घकालीन विलम्ब-वियोग,
आओं नैनों की भाषा को,
नए सम्बल देकर आलाप करें दो पल।
ओ प्रिय! इस मधुर स्पर्श को,
हम सदियों से चाह रहे थे,
जड़वत् जीवन है वर्षों से,
पाषाणवत् मन-मस्तिष्क शरीर,
काया-मन-आत्मा का संगम होने दें दो पल।
न वह सरसता न सरलता
न स्वाभाविकता बातों की रही
मात्र स्वार्थयुक्तता की जटिलता
पिछले कई युगों से चल निकली
निहार रही थी तीव्र पुतलियाँ
राह कई सदियों से तुम्हारी
मनों की मधुर अठखेलियाँ
चाह रही थी संगत तुम्हारी
यह स्वर्ण शृंखला गूंथें दो पल।
आँचल का एक छोर बँधा है
रिश्तों की परिभाषा में
एक नया रिश्ता हम गूँथ रहे हैं
पाने को मन की थाहें
अस्तित्वों को परिभाषित करें दो पल।
आशाएँ निमिषों में भरकर
अंजुलियों से बाँटी हमने,
सुख के कुछ चंचल क्षण
जी भरकर लुटाए हमने
किंतु अब अपनी पारी में
क्या आशाएँ समाप्त हो गईं ?
कहाँ गई सकारात्मकता की अनुभूति?
और सद्गुणों का दिग्दर्शन कहाँ गया?
इनको भी उगने दें दो पल।