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"भूरी पुतली-से बादल / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

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बरखा की बूँदों को लेकर
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काली घनघोर दिशाओं को सहलाने
  
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आएँगे कब और कैसे बादल
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रेशम का सा ओढे आँचल
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सम्भवतः अस्पर्श हुआ मलमल
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लाएँगे कब और कैसे बादल
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पेड़ों की सरसराती पत्तियों पर
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चाँदी की चमकती बूँदें बिखेरकर
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अपने कोमल तन को पिघलाकर
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जल लाएँगे कब और कैसे बादल
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कभी-कभी तो तरसा जाते हैं
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मेरे मन को चोल़ी पंछी-सा
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भीगे स्पर्श की कल्पनाएँ लेकर
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मेरे मन को कल्पनाओं को साकार कर
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आएँगे कब और कैसे बादल
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किसी रूपसी के काले केशों-से
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किन्हीं नैनों के सुन्दर काजल-से
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और भूरी पुतलियों के कजरारे आभास से
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भूखण्डों के नीले पर्वत- शिखरों पर
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जलधारा के श्वेत सोते
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लाएँगे कब कहाँ से बादल
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ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा
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मेहा की बूँदनि लै
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कुचति घाम कौ अनुभव बिसराइबे
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कारी घनघोर दिसनि सहराइबे
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ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा
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रेसम कौ सौ ओढ़ैं अँचरा
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जु पै अनछुयौ भयौ मलमल
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संझा बिरिया गमकति सपुने नाई
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घुमड़ि घुमड़ि अरु आरि करत
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ल्यावैंगे कबुक अरु काहिं बदरा
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रूखनि की सरसरावति पातिनि पै
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रूपे की चमकति बुँदियाँ बगराइ
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अपुने अल्हर आँगु कौं टिघराइ
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जल ल्यावैंगे कबुक अरु काहिं बदरा
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कभऊँ कभऊँ तौ तरसाइ जावत
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मोरे हिय कौं चोली पच्छी सौ
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भींजे परस की कल्पना लै
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मोरे हिय की कल्पना कौं साकार करि
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ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा
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काऊ रूपसी की कारी अलकन नाई
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कोऊ नैननि के सुघर अंजन नाई
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अरु भूरी पुतरिन के कजरारे आभास नाई
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भू खण्डन की लीली परबत चोटिनि ऊपर
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जलधारा के सेत सोता
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ल्यावैंगे कबुक किततैं बदरा।
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04:28, 24 अगस्त 2024 के समय का अवतरण

आएँगे कब और कैसे बादल
बरखा की बूँदों को लेकर
शीतलता के घरौंदों को लेकर
चुभती धूप का अनुभव भुलाने
काली घनघोर दिशाओं को सहलाने

आएँगे कब और कैसे बादल
रेशम का सा ओढे आँचल
सम्भवतः अस्पर्श हुआ मलमल
बेला साँझ की सुरभित स्वप्निल
घुमड़-घुमड़ और मचल-मचल
लाएँगे कब और कैसे बादल

पेड़ों की सरसराती पत्तियों पर
चाँदी की चमकती बूँदें बिखेरकर
अपने कोमल तन को पिघलाकर
जल लाएँगे कब और कैसे बादल

कभी-कभी तो तरसा जाते हैं
मेरे मन को चोल़ी पंछी-सा
भीगे स्पर्श की कल्पनाएँ लेकर
मेरे मन को कल्पनाओं को साकार कर
आएँगे कब और कैसे बादल

किसी रूपसी के काले केशों-से
किन्हीं नैनों के सुन्दर काजल-से
और भूरी पुतलियों के कजरारे आभास से
भूखण्डों के नीले पर्वत- शिखरों पर
जलधारा के श्वेत सोते
लाएँगे कब कहाँ से बादल
-0-
ब्रज अनुवादः रश्मि विभा त्रिपाठी

ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा
मेहा की बूँदनि लै
सियराई के घरौंदनि लै
कुचति घाम कौ अनुभव बिसराइबे
कारी घनघोर दिसनि सहराइबे

ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा
रेसम कौ सौ ओढ़ैं अँचरा
जु पै अनछुयौ भयौ मलमल
संझा बिरिया गमकति सपुने नाई
घुमड़ि घुमड़ि अरु आरि करत

ल्यावैंगे कबुक अरु काहिं बदरा
रूखनि की सरसरावति पातिनि पै
रूपे की चमकति बुँदियाँ बगराइ
अपुने अल्हर आँगु कौं टिघराइ
जल ल्यावैंगे कबुक अरु काहिं बदरा

कभऊँ कभऊँ तौ तरसाइ जावत
मोरे हिय कौं चोली पच्छी सौ
भींजे परस की कल्पना लै
मोरे हिय की कल्पना कौं साकार करि
ऐहैं कबुक अरु काहिं बदरा

काऊ रूपसी की कारी अलकन नाई
कोऊ नैननि के सुघर अंजन नाई
अरु भूरी पुतरिन के कजरारे आभास नाई
भू खण्डन की लीली परबत चोटिनि ऊपर
जलधारा के सेत सोता
ल्यावैंगे कबुक किततैं बदरा।
-0-