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− | + | तटबंध जो अगर चट्टान था | |
− | + | तब भी रेत ही था | |
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− | तटबंध जो अगर चट्टान था | + | |
− | तब भी रेत ही था | + | |
अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार ! | अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार ! | ||
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17:04, 11 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण
'इतने मरे'
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था
अख़बार।
अब सम्पादक
चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी
लिहाज़ा अपरिहार्य था
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।
एक हाथ दोशाले से छिपाता
झबरीली गरदन के बाल
दूसरा
रक्त-भरी चिलमची में
सधी हुई छ्प्प-छ्प।
जीवन
किन्तु बाहर था
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख़ के बाहर था जीवन
वेगवान नदी सा हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था
अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !