"द्वितीय अध्याय / रंजना वर्मा" के अवतरणों में अंतर
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कहा सूत ने जो वह सुनिये। ब्राह्मण-कथा हृदय में गुनिये।। | कहा सूत ने जो वह सुनिये। ब्राह्मण-कथा हृदय में गुनिये।। |
01:21, 15 जून 2018 के समय का अवतरण
कहा सूत ने जो वह सुनिये। ब्राह्मण-कथा हृदय में गुनिये।।
सतानंद विप्र अति निर्धन। काशीपुर में कटता जीवन।।
भूख प्यास से व्याकुल हो कर। घूमा करते थे धरती पर।।
दुखित बहुत ब्राह्मण को देखा। उपजी हृदय दया की रेखा।।
ब्राह्मण रूप धरा ईश्वर ने । करुणा की उस करुणाकर ने।।
पूछा-ब्राह्मण, व्याकुल होकर। भटक रहे हो क्यों पृथ्वी पर।।
हूँ अति दुखी कष्ट का मारा । भीख माँग कर करूँ गुजारा।।
कष्ट निवारण मेरा करिये। हो उपाय यदि मुझ से कहिये।।
वृद्ध विप्र बोले नारायण । होगा निश्चित कष्ट निवारण।।
मनवांछित फल देने वाला। हरि का पूजन बहुत निराला।।
व्रत कर मुक्त रहो हर दुख से। जीवन यापन होगा सुख से।।
व्रत की विधि महिमा बतलायी। विप्र न फिर वो दिये दिखायी।।
ब्राह्मण ने जो आज बताया। व्रत पूजन वह है मनभाया।।
उसे करूँगा यह निश्चय कर। रात बितायी करवट ले कर।।
प्रातः यह संकल्प उठाया। व्रत करने का मन्त्र दृढ़ाया।।
भिक्षा हेतु किया भिक्षाटन। उस दिन था पाया दुगुना धन।।
बन्धु बांधवों को आमन्त्रण। दे कर न्यौत दिये नारायण।।
मिल कर पूजन साज संवारा। सब दुख से पाया छुटकारा।।
तब से मास मास व्रत करता। पाप कष्ट दुख सारे हरता।।
जब व्रत किया कष्ट सब भागा। मिला मोक्ष जब जीवन त्यागा।।
कहा विष्णु ने यों नारद से। कहा सूत जी ने तब सब से।।
तुम ने जो पूछा बतलाया। अब क्या कहूँ कहो मनभाया।।
ऋषि बोले व्रत हमें सुहाया। ब्राह्मण से फिर किस ने पाया।।
किस ने किया धरा पर पूजन। सुनना चाह रहे हम ऋषि गण।।
कहा सूत ने मुनि जन सुनिये। सुन्दर कथा हृदय में गुनिये।।
वैभव से सम्पन्न हुआ द्विज। व्रत कर रहा भवन में था निज।।
मित्र बन्धु सारे मिल जुल कर। व्रत का पूजन करते सुंदर।।
एक लकड़हारा तब आया। बोझ उतार गेह में आया।।
प्यास व्याकुल निरख रहा था। पूजन की विधि परख रहा था।।
कर प्रणाम बोला ब्राह्मण से । क्या यह करते कहिये मुझ से।।
क्या विधान है व्रत का होता। करने का फिर फल क्या होता।।
बोला विप्र सत्य नारायण। करते सब का कष्ट निवारण।।
लक्ष्मीपति हैं बड़े निराले। मनवांछित फल देने वाले।।
मैंने भी जब व्रत अपनाया। इस से ही सब सुख धन पाया।।
लकड़ी विक्रेता हरषाया। जल प्रसाद जी भर कर खाया।।
तुरत नगर की ओर चल पड़ा। मन में कर संकल्प यह बड़ा।।
लकड़ी की जो कीमत पाऊँ। उस से प्रभु को भोग लगाऊँ।।
सत्यनारायण का व्रत उत्तम। कर के मैं भी पाऊँ अन धन।।
गट्ठर उठा रखा मस्तक पर। चला मार्ग पर अपने सत्वर।।
धनियों के घर मिले राह में। शुष्क काष्ठ की सभी चाह में।।
कीमत उस ने दुगुनी पायी। प्रभु-पूजन की श्रद्धा आयी।।
केला घी गेहूँ का आटा। दूध दही मधु शक्कर बाटा।।
सब ले कर निज गृह में आया। स्वजन बंधु गण को बुलवाया।।
विधि से व्रत का कौल निभाया। सुख सन्तति इच्छित फल पाया।।
सुख से जीवन यहाँ बिता कर। पाया मोक्ष देह को तज कर।।
।। श्री सत्यनारायण व्रत कथा का दूसरा अध्याय समाप्त।।